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________________ केशी श्रमण की देशना १४३ पुच्छियढे अहिगयढे विणिच्छियढे अट्ठिमिंजपेम्माणुरागरत्ते–'अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अद्वे अयं परमटे सेसे अणडे' ऊसियफलिहे अवंगुयदुवारे चियत्तंतेउरघरप्पवेसे चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणे, समणेणिग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असण-पाणखाइम-साइमेणं-पीढ-फलग-सेज्जा-संथारेणं-वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसह-भेसज्जेणं पडिला माणे, अहापरिग्गहेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे, जाई तत्थ रायकज्जाणि य जाव' रायववहाराणि य ताइं जियसत्तुणा रण्णा सद्धिं सयमेव पच्चुवेक्खमाणे पच्चुवेक्खमाणे विहरइ । २२२– तब वह चित्त सारथी श्रमणोपासक हो गया। उसने जीव-अजीव पदार्थों का स्वरूप समझ लिया था, पुण्य-पाप के भेद को जान लिया था, वह आश्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण (क्रिया का आधार, जिसके आधार से क्रिया की जाये), बंध, मोक्ष के स्वरूप को जानने में कुशल हो गया था, दूसरे की सहायता का अनिच्छुक (आत्मनिर्भर) था अर्थात् कुतीर्थिकों के कुतर्कों के खंडन में पर की सहायता की अपेक्षा वाला नहीं रहा। देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गंधर्व, महोरग आदि देवताओं द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन से अनतिक्रमणीय था, अर्थात् विचलित किये जा सकने योग्य नहीं था। निर्ग्रन्थ-प्रवचन में निःशंक शंकारहित था, आत्मोत्थान के सिवाय अन्य आकांक्षा रहित था। अथवा अन्य मतों की आकांक्षा उसके चित्त में नहीं थी, विचिकित्सा—फल के प्रति संशय रहित था, लब्धार्थ (गुरुजनों से) यथार्थ तत्त्व का बोध प्राप्त कर लिया था, ग्रहीतार्थ उसे ग्रहण किये हुए था, विनिश्चितार्थ निश्चित रूप से उस अर्थ को आत्मसात् कर लिया था एवं अस्थि और मज्जा पर्यन्त धर्मानुराग से भरा था अर्थात उसकी रग-रग में निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति प्रेम और अनराग व्याप्त था। वह दसरों को सम्बोधित करते हुए कहता था कि आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन ही अर्थ—प्रयोजनभूत है, यही परमार्थ है, इसके सिवाय अन्य अन्यतीर्थिक के कथन कुगतिप्रापक होने से अनर्थ —अप्रयोजनभूत हैं। असद् विचारों से रहित हो जाने के कारण उसका हृदय स्फटिक की तरह निर्मल हो गया था। निर्ग्रन्थ श्रमणों का भिक्षा के निमित्त सरलता से प्रवेश हो सकने के विचार से उसके घर का द्वार अर्गलारहित था अर्थात् सुपात्र दान के लिए उसका द्वार सदा खुला रहता था। सभी के घरों, यहां तक कि अन्तःपुर में भी उसका प्रवेश शंकारहित होने से प्रीतिजनक था। चतुर्दशी, अष्टमी, उद्दिष्ट—अमावस्या एवं पूर्णिमा को परिपूर्ण पौषधव्रत का समीचीन रूप से पालन करते हुए, श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक, एषणीय स्वीकार करने योग्य निर्दोष अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार, पीठ फलक, शैय्या, संस्तारक, आसन, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन (रजोहरण), औषध, भैषज से प्रतिलाभित करते हुए एवं यथाविधि ग्रहण किये हुए तपःकर्म से आत्मा को भावित शुद्ध करते हुए जितशत्रु राजा के साथ रहकर स्वयं उस श्रावस्ती नगरी के राज्यकार्यों यावत् राज्यव्यवहारों का बारम्बार अवलोकन-अनुभव करते हुए विचरने लगा। विवेचन— प्रस्तुत सूत्र में ऐसे मनुष्य का चरित्र-चित्रण किया है, जो जीवनशुद्धि के निमित्त धार्मिक आचारविचारों के अनुरूप प्रवृत्ति करता है। २२३- तए णं से जियसत्तुराया अण्णया कयाइ महत्थं जाव पाहुडं सज्जेइ, चित्तं सारहिं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी—गच्छाहि णं दां चित्ता ! सेयवियं नगरि, पएसिस्स रन्नो इमं १. देखें सूत्र संख्या २११
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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