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राजप्रश्नीयसूत्र
जानकर कि यह भव्य आत्मा संसारसागर से पार होने की अभिलाषी है, इसे पथप्रदर्शन एवं तदनुकूल निमित्तों का बोध कराने की आवश्यकता है। बिना पथप्रदर्शन के भटक सकती है तो हल्का सा संकेत भी उन्होंने कर दिया कि 'मा पडिबंधं करेहि।'
सारांश यह हुआ कि इच्छानुसार चित्त सारथी श्रावकधर्म ग्रहण करना चाहे तो कर ले। क्योंकि जीवनशुद्धि के लिए कम-से-कम इतना त्याग तो प्रत्येक मनुष्य को करना ही चाहिए।
__२२१– तए णं से चित्ते सारही केसिकुमारसमणस्स अंतिए पंचाणुव्वतियं जाव गिहिधम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरति । तए णं से चित्ते सारही केसिकुमारसमणं वंदइ नमसइ, नमंसित्ता जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए । चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ, जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए ।
२२१– तब चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण के पास पांच अणुव्रत यावत् (सात शिक्षाव्रतरूप) श्रावक धर्म को अंगीकार किया
तत्पश्चात् चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण की वन्दना की, नमस्कार किया। नमस्कार करके जहां चार घंटों वाला अश्वरथ था, उस ओर चलने को तत्पर—उन्मुख हुआ। वहां जाकर चार घंटों वाले अश्वरथ पर आरूढ हुआ, फिर जिस ओर से आया था, वापस उसी ओर लौट गया।
विवेचन— श्रावक धर्म पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रतरूप है। ये दोनों मिलकर श्रावक के बारह व्रत कहलाते हैं। इनमें अणव्रत श्रावक के मलव्रत हैं और शिक्षाव्रत उनके पोषण.संवर्धन एवं रक्षण में सहायक वाडरूप व्रत हैं। अणुव्रतों के बिना जैसे इन शिक्षाव्रतों का महत्त्व नहीं है, उसी प्रकार इनके बिना अणुव्रतों का यथारूप में अभ्यास, पालन नहीं किया जा सकता है। शिक्षाव्रतों के अभ्यास से अणुव्रतों में उत्तरोत्तर स्थिरता आती जाती है।
पांच अणुव्रत इस प्रकार हैं—अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, स्वदार-संतोषव्रत, परिग्रहपरिमाणव्रत। १.प्राणातिपात (शरीर, इन्द्रिय आदि द्रव्यप्राणों और चैतन्यरूप भावप्राणों का घात करना) से विरत-निवृत्त होना। इस व्रत में निरपराधी त्रसजीवों की संकल्पपूर्वक विराधना का त्याग करके निष्प्रयोजन स्थावर-एकेन्द्रिय जीवों का भी प्राणव्यपरोपण (हनन) नहीं किया जाता है। २. मृषावाद (असत्य) से निवृत्त होना। ३. अदत्तादान (चोरी) से निवृत्त होना। ४. स्वदारसंतोष अपनी परिणीता पत्नी से अतिरिक्त अन्य स्त्रियों के साथ मैथुनसेवन न करना। ५. परिग्रह का परिमाण करना।
सात शिक्षाव्रतों का दो प्रकारों में विभाजन हैं—गुणव्रत और शिक्षाव्रत। गुणव्रत तीन और शिक्षाव्रत चार हैं। गुणव्रत अणुव्रतों के गुणात्मक विकास में सहायक एवं साधक के चारित्रगुणों की वृद्धि करने वाले हैं और शिक्षाव्रत अणुव्रतों के अभ्यास एवं साधना में स्थिरता लाने में उपयोगी हैं।
२२२- तए णं से चित्ते सारही समणोवासए जाव अहिगयजीवाजीवे, उवलद्ध पुण्णपावे; आसव-संवर-निज्जर-किरियाहिगरण-बंध-मोक्ख-कुसले असहिज्जे देवासुर-णाग-सुवण्णजक्ख-रक्खस-किन्नर-किंपुरिस-गरुल-गंधव्व-महोरगाईहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जे, निग्गंथे पावयणे हिस्संकिए, णिक्कंखिए, णिव्वितिगिच्छे, लद्धढे गहियटे