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केशी श्रमण की देशना
१४१ तुब्भे वदह त्ति कटु वंदइ नमसइ, नमंसित्ता एवं वयासी जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे उग्गा जाव इब्भा इब्भपुत्ता चिच्चा हिरण्णं, चिच्चा सुवण्णं एवं धणं-धन्नं-बलं-वाहणं-कोसं कोट्ठागारं पुरं अंतेउरं, चिच्चा विउलं धण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवाल संतसारसावएज्जं विच्छडित्ता विगोवइत्ता दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयंति, णो खलु अहं ता संचाएति चिच्चा हिरण्णं तं चेव जाव पव्वइत्तए । अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जित्तए ।
अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेहि ।
२२०- तदनन्तर वह चित्त सारथी केशी कुमारश्रमण से धर्म श्रवण कर एवं उसे हृदय में धारण कर हृष्ट-तुष्ट होता हुआ यावत् (चित्त में आनन्द का अनुभव करता हुआ, प्रीति-अनुराग युक्त होता हुआ, सौम्यभावों वाला होता हुआ और हर्षातिरेक से विकसित) हृदय होता हुआ अपने आसन से उठा। उठकर केशी कुमारश्रमण की तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार बोला—भगवन् ! मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा है। भगवन् ! इस पर प्रतीति (विश्वास) करता हूं। भदन्त ! मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन रुचता है अर्थात् तदनुरूप आचरण करने का आकांक्षी हूं। हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन को अंगीकार करना चाहता हूं। भगवन् ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ऐसा ही है। भगवन् ! यह तथ्य-यथार्थ है। भगवन्! यह अवितथ-सत्य है। असंदिग्ध है शंकासंदेह से रहित है। मुझे इच्छित है अर्थात् मैंने इसकी इच्छा की है। मुझे इच्छित, प्रतीच्छित है अर्थात् मैं इसकी पुनः पुनः इच्छा करता हूं। भगवन् ! यह वैसा ही है जैसा आप निरूपण कथन करते हैं। ऐसा कहकर वन्दन-नमस्कार किया और नमस्कार करके पुनः बोला___ हे देवानुप्रिय! जिस तरह से आपके पास अनेक उग्रवंशीय, भोगवंशीय यावत् इभ्य एवं इभ्यपुत्र आदि हिरण्य-चांदी का त्याग कर, स्वर्ण को छोड़कर तथा धन, धान्य, बल, वाहन, कोश, कोठार, पुर-नगर, अन्तःपुर का त्याग कर और विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिलाप्रवाल (मूंगा) आदि सारभूत द्रव्यों का ममत्व छोड़कर, उन सबको दीन-दरिद्रों में वितरित कर, पुत्रादि में बंटवारा कर, मुंडित होकर, गृहस्थ जीवन का परित्याग कर अनगारधर्म में प्रव्रजित हुए हैं, उस प्रकार चांदी का त्याग कर यावत् प्रव्रजित होने में तो मैं समर्थ नहीं हूं। मैं आप देवानुप्रिय के पास पंच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत मूलक बारह प्रकार का गृहीधर्म (श्रावकधर्म) अंगीकार करना चाहता हूं।
चित्त सारथी की भावना को जानकर केशी कुमारश्रमण ने कहा, देवानुप्रिय! जिससे तुम्हें सुख हो, वैसा ही करो, किन्तु प्रतिबंध—विलम्ब मत करो।
विवेचन—चित्त सारथी संसारभीरु था और प्रदेशी राजा के पाप कार्यों से खेदभिन्न रहता था। लेकिन अपनी मानसिक, पारिवारिक और प्रजाजनों की स्थिति को देखकर तत्काल उसे यह सम्भव प्रतीत नहीं हुआ कि अनगारप्रव्रज्या अंगीकार कर लूं। इसीलिए उसने निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति भावपूर्ण शब्दों में अपनी आन्तरिक श्रद्धा का निवेदन किया।
केशी कुमारश्रमण के समक्ष जब चित्त सारथी ने अपनी आन्तरिक भावना को व्यक्त करते हुए अपने विचारों को प्रकट किया तो केशी कुमार श्रमण ने अपने मध्यस्थभाव के अनुसार कहा —अहासुहं देवाणुप्पिया! और फिर यह