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राजप्रश्नीयसूत्र
स्थान पर सम्मुख बैठकर धर्मोपदेश सुनने की इच्छा से नमस्कार करता हुआ विनयपूर्वक अंजलि करके पर्युपासना करने लगा। केशी श्रमण की देशना
- २१९- तए णं से केसिकुमारसमणे चित्तस्स सारहिस्स तीसे महतिमहालियाए महच्चपरिसाए चाउज्जामं धम्म परिकहेइ । तं जहा—सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिण्णादाणांओ वेरमणं, सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं । तए णं सा महतिमहालिया महच्चपरिसा केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्म सोच्चा-निसम्म जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया ।
२१९- तत्पश्चात् केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी और उस अतिविशाल परिषद् को चार याम धर्म का उपदेश दिया। उन चातुर्यामों के नाम इस प्रकार हैं
(१) समस्त प्राणातिपात (हिंसा) से विरमण (निवृत्त होना) (२) समस्त मृषावाद (असत्य) से विरत होना, (३) समस्त अदत्तादान से विरत होना, (४) समस्त बहिद्धादान (मैथुन-परिग्रह) से विरत होना।
इसके बाद वह अतिविशाल परिषद् (जनसमूह) केशी कुमारश्रमण से धर्मदेशना सुनकर एवं हृदय में धारण कर-मनन कर जिस दिशा से आई थी, उसी ओर लौट गई अर्थात् वह आगत जनसमूह अपने-अपने घरों को वापस लौट गया।
विवेचन— कुमारश्रमण केशी पार्श्वनाथ के अनुयायी थे और भगवान् पार्श्व ने चार यामों की प्ररूपणा की है। अतः इन्होंने चार यामों (महाव्रतों) का उपदेश दिया। लेकिन भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित पंच महाव्रतों से संख्याभेद के सिवाय इन चार महाव्रतों के आशय में अन्य कोई अन्तर नहीं है। स्थानांगसूत्र टीका में 'बहिद्धा' का अर्थ मैथुन और 'आदान' का अर्थ परिग्रह बताया है। अथवा स्त्री-परिग्रह एवं अन्य किसी भी प्रकार का परिग्रह बहिद्धादान में गर्भित है।
२२०- तए णं से चित्ते सारही केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठजाव हियए उट्ठाए उठेइ, उद्वेत्ता केसिं कुमारसमणं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, वंदइ नमंसइ, नमंसित्ता एवं वयासी
सदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं । पत्तियामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं । रोएमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं । अब्भुढेमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं । एवमेयं निग्गंथं पावयणं । तहमेयं भंते !०१ अवितहमेयं भंते !० असंदिद्धमेयं०, इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! जं णं
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यहां ० 'निगन्थं पावयणं' का बोधक संकेत है।