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चित्त सारथी का दर्शनार्थ गमन
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२१६– तब उस कंचुकी पुरुष ने केशी कुमार श्रमण के पदार्पण होने के निश्चित समाचार जान कर दोनों हाथ जोड़ यावत् जय-विजय शब्दों से वधाकर चित्तसारथी से निवेदन किया-देवानुप्रिय! आज श्रावस्ती नगरी में इन्द्रमहोत्सव यावत् समुद्रयात्रा आदि नहीं है कि जिससे ये बहुत से उग्रवंशीय आदि लोग अपने-अपने समुदाय बनाकर निकल रहे हैं। परन्तु हे देवानुप्रिय! बात यह है कि आज जाति आदि से संपन्न पार्खापत्य केशी नामक कुमारश्रमण यावत् एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करते हुए यहां पधारे हैं यावत् कोष्ठक चैत्य में विराजमान हैं। इसी कारण आज श्रावस्ती नगरी के ये अनेक उग्रवंशीय यावत् इन्भ, इब्भपुत्र आदि वंदना करने के विचार से बड़े-बड़े समुदायों में अपने घरों से निकल रहे हैं। चित्त सारथी का दर्शनार्थ गमन
२१७ – तए णं से चित्ते सारही कंचुइपुरिसस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म हट्ठतुटु-जाव हियए कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंट आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह जाव सच्छत्तं उवट्ठति ।
२१७– तत्पश्चात् कंचुकी पुरुष से यह बात सुन-समझ कर चित्त सारथी ने तुष्ट हृदय यावत् हर्षविभोर-हृदय होते हुए कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनसे कहा हे देवानुप्रियो! शीघ्र ही चार घंटों वाले अश्वरथ को जोतकर उपस्थित करो। यावत् वे कौटुम्बिक पुरुष छत्रसहित अश्वरथ को जोतकर लाये।
२१८ – तए णं से चित्ते सारही बहाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाइं मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिते अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महया भडचडगरेण विंदपरिखित्ते सावत्थीनगरीय मझमझेणं निग्गच्छइ । निग्गच्छित्ता जेणेव कोट्ठए चेइए जेणेव केसिकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता केसिकुमारसमणस्स अदूरसामंते तुरए णिगिण्हइ रहं ठवेइ य, ठवित्ता पच्चोरुहति । पच्चोरुहित्ता जेणेव केसिकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता केसिकुमारसमणं तिक्खुत्तो आयाहिणं-पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमसइ, नमंसित्ता णच्चासण्णे णाति दूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे पंजलिउडे विणएणं पज्जुवासइ ।
___ २१८- तदनन्तर चित्त सारथी ने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक मंगल प्रायश्चित्त किया, शुद्ध एवं सभोचित मांगलिक वस्त्रों को पहना, अल्प किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया और उसके बाद वह चार घण्टों वाले अश्वरथ के पास आया। आकर उस चातुर्घट अश्वरथ पर आरूढ हुआ एवं कोरंट पुष्पों की मालाओं से सुशोभित छत्र धारण करके सुभटों के विशाल समुदाय के साथ श्रावस्ती नगरी के बीचों-बीच होकर निकला। निकलकर जहां कोष्ठक नामक चैत्य था और उसमें भी जहां केशी कुमारश्रमण विराज रहे थे, वहां आया। आकर केशी कुमारश्रमण से कुछ दूर घोड़ों को रोका और रथ खड़ा किया। रथ खड़ा कर उससे नीचे उतरा। उतर कर जहां केशी कुमारश्रमण थे, वहां आया। आकर दक्षिण दिशा से प्रारंभ कर केशी कुमारश्रमण की तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार करके न अत्यन्त समीप और न अति दूर किन्तु समुचित