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राजप्रश्नीयसूत्र हयगया गयगया जाव (रहगया सिबियागया संदमाणिया अप्पेगतिया) पायचारविहरेणं महया महया वंदावंदएहिं निग्गच्छंति, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कंचुइज्जपुरिसं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी
किं णं देवाणुप्पिया ! अज्ज सावत्थीए नगरीए इंदमहे इ वा जाव सागरमहे इ वा जेणं इमे बहवे उग्गा भोगा० णिग्गच्छंति ?
२१५– तब लोगों की बातचीत, जनकोलाहल सुनकर तथा जनसमूह को देखकर चित्त सारथी को इस प्रकार का यह आन्तरिक यावत् (चिन्तित, प्रार्थित—इष्ट और मनोगतसंकल्प-विचार) उत्पन्न हुआ कि क्या आज श्रावस्ती नगरी में इन्द्रमह (इन्द्र-निमित्तक उत्सव–इन्द्रमहोत्सव) है ? अथवा स्कन्द (कार्तिकेय) मह है ? या रुद्रमह, मुकुन्दमह, शिवमह, वैश्रमण (कुबेर) मह, नागमह (नाग सम्बन्धी उत्सव), यक्षमह, भूतमह, स्तूपमह, चैत्यमह, वृक्षमह, गिरिमह, दरि (गुफा) मह, कूपमह, नदीमह, सर (तालाब) मह, अथवा सागरमह है ? कि जिससे ये बहुत से उग्रवंशीय, उग्रवंशीयकुमार, भोगवंशीय, राजन्यवंशीय, इक्ष्वाकुवंशीय, ज्ञातवंशीय, कौरववंशीय यावत् (क्षत्रिय सामान्य राजकुल के सम्बन्धी, माहण-ब्राह्मण, सुभट, योधा, मल्लक्षत्रिय (मल्लिक गणराज्य से सम्बन्धित), मल्लपुत्र, लिच्छवी क्षत्रिय लिच्छिवीपुत्र), इब्भ, इब्भपुत्र तथा दूसरे भी अनेक राजा (मांडलिक राजा) ईश्वर युवराज, तलवर (जागीरदार), माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्यश्रेष्ठी (महाधनी—हाथी प्रमाण धन से संपन्न सेठ), सेनापति, सार्थवाह आदि सभी स्नान कर, बलिकर्म कर, कौतुक-मंगल-प्रायश्चित्त कर, मस्तक और गले में मालाएं धारण कर, मणिजटित स्वर्ण के आभूषणों से शरीर को विभूषित कर, गले में हार (अठारह लड़ का हार), अर्धहार, तिलड़ी, झुमका और कमर में लटकते हुए कटिसूत्र (करधनी) पहनकर, शरीर पर चंदन का लेप कर, आनंदातिरेक से सिंहनाद और कलकल ध्वनि से श्रावस्ती नगरी को गुंजाते हुए जनसमूह के साथ एक ही दिशा में मुख करके जा रहे हैं आदि वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार यहां जानना चाहिए। यावत् उनमें से कितने ही घोड़ों पर सवार होकर, कई हाथी पर सवार होकर, कोई रथों में बैठ कर या पालखी में बैठ कर स्यंदमानिका में बैठकर और कितने ही अपने अपने समुदाय बनाकर पैदल ही जा रहे हैं। ऐसा विचार किया और विचार करके कंचुकी पुरुष (द्वारपाल) को बुलाकर उससे पूछा
देवानुप्रिय! आज क्या श्रावस्ती नगरी में इन्द्र-महोत्सव है यावत् सागरयात्रा है कि जिससे ये बहुत से उग्रवंशीय भोगवंशीय आदि सभी लोग अपने-अपने घरों से निकलकर एक ही दिशा में जा रहे हैं ?
२१६– तए णं से कंचुईपुरिसे केसिस्स कुमारसमणस्स आगमणगहियविणिच्छए चित्तं सारहिं करयलपरिग्गहियं जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी—णो खलु देवाणुप्पिया ! अज्ज सावत्थीए णयरीए इंदमहे इ वा जाव सागरमहे इ वा जे णं इमे बहवे जाव' विंदाविंदएहिं निग्गच्छंति, एवं खलु भो देवाणुप्पिया ! पासावचिजे केसी नाम कुमारसमणे जाइसंपन्ने जाव दूइज्जमाणे इहमागए जाव विहरइ । तेणं अज्ज सावत्थीए नयरीए बहवे उग्गा जाव इब्भा इब्भपुत्ता अप्पेगतिया वंदणवत्तियाए जाव महया वंदावंदएहि णिग्गच्छंति ।
१.
देखें सूत्र संख्या २१५
२.
देखें सूत्र संख्या २१३