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________________ दर्शनार्थ परिषदा का गमन और चित्त की जिज्ञासा १३७ २१४– तत्पश्चात् (केशी कुमारश्रमण का पदार्पण होने के पश्चात्) श्रावस्ती नगरी के शृंगाटकों (त्रिकोण वाले स्थानों), त्रिकों (तिराहों), चतुष्कों (चौराहों), चत्वरों (चौकों), चतुर्मुखों (चारों तरफ द्वार वाले स्थान-विशेषों), राजमार्गों और मार्गों (गलियों) में लोग आपस में चर्चा करने लगे, लोगों के झुंड इकट्ठे होने लगे, लोगों के बोलने की घोंघाट सुनाई पड़ने लगी, जनकोलाहल होने लगा, भीड़ के कारण लोग आपस में टकराने लगे, एक के बाद एक लोगों के टोले आते दिखाई देने लगे, इधर-उधर से आकर लोग एक स्थान पर इकट्ठे होने लगे, यावत् (बहुत से लोग परस्पर एक दूसरे से कहने लगे, बोलने लगे, प्ररूपणा करने लगे हे देवानुप्रियो! जाति आदि से संपन्न श्रेष्ठ पार्खापत्य केशी कुमारश्रमण अनुक्रम से गमन करते हुए, ग्रामानुग्राम—एक गांव से दूसरे गांव में विचरते हुए आज यहां आये ये हैं, प्राप्त हुए हैं, पधार गए हैं और इसी श्रावस्ती नगरी के बाहर कोष्ठक चैत्य में यथारूप (साधुमर्यादा के अनुरूप) अवग्रह—आज्ञा लेकर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विचर रहे हैं। __ अतएव हे देवानुप्रियो! जब तथारूप श्रमण भगवतों के नाम और गोत्र के सुनने से ही महाफल प्राप्त होता है, तब उनके समीप जाने, उनकी वंदना करने, उनसे प्रश्न पूछने और उनकी पर्युपासना सेवा करने से प्राप्त होने वाले अनुपम फल के लिए तो कहना ही क्या है ! आर्य धर्म के एक सुवचन के सुनने से जब महाफल प्राप्त होता है, तब हे आयुष्मन् ! विपुल अर्थों को ग्रहण करने से प्राप्त होने वाले फल के विषय में तो कहना ही क्या है ? इसलिए हे देवानुप्रियो! हम उनके पास चलें; उनको वंदन-नमस्कार करें, उनका सत्कार करें, भक्तिपूर्वक सम्मान करें एवं कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप उनकी विनयपूर्वक पर्युपासना करें। यह वंदन-नमस्कार करना हमें इस भव तथा परभव में हितकारी है, सुखप्रद है, क्षेम-कुशल एवं परमनिश्रेयस् —कल्याण का साधन रूप होगा तथा इसी प्रकार अनुगामी रूप से जन्म-जन्मान्तर में भी सुख देने का निमित्त बनेगा—ऐसा विचार कर परिषदा (जनसमुदाय) निकली और केशी कुमारश्रमण के पास पहुंच कर दक्षिण दिशा से प्रारम्भ कर उनकी तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार करके न तो अधिक दूर और न अधिक निकट किन्तु उनके सम्मुख यथायोग्य स्थान पर बैठकर शुश्रूषा और नमस्कार करते हुए सविनय अंजलि करके) पर्युपासना सेवा करने लगी। ___ २१५- तए णं तस्स सारहिस्स तं महाजणसदं च जणकलकलं च सुणेत्ता य पासेत्ता य इमेयारूवे अज्झथिए जाव (चिंतिए, पत्थिए मणोगते संकप्पे) समुप्पज्जित्था, किं णं अन्ज सावत्थीए णयरीए इंदमहे इ वा, खंदमहे इ वा, रुद्दमहे इ वा, मउंदमहे इ वा, सिवमहे इ वा, वेसमणमहे इ वा, नागमहे इ वा, जक्खमहे इ वा, भूयमहे इ वा, थूममहे इ वा, चेइयमहे इ वा, रुक्खमहे इ वा, गिरिमहे इ वा, दरिमहे इ वा, अगडमहे इ वा, नईमहे इ वा, सरमहे इ वा, सागरमहे इ वा, जं णं इमे बहवे उग्णा उग्गपुत्ता भोगा राइन्ना इक्खागा णाया कोरव्वा जाव (खत्तिया माहणा भडा जोहा मल्लई मल्लइपुत्ता लेच्छइ, लेच्छइपुत्ता) इब्भ इब्भपुत्ता अण्णे य बहवे राया-ईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुंबिय-इब्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाहप्पभितियो ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सिरसाकंठेमालकडा आविद्धमणिसुवण्णा कप्पियहार-अद्धहार-तिसरपालंबपलंबमाण-कडिसुत्तयकयसोहाहरणा चंदणोलित्तगायसरीरा पुरिसवग्गुरापरिखित्ता महया उक्किट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं एगदिसाए जहा उववाइए जाव अप्पेगतिया
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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