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________________ १३६ राजप्रश्नीयसूत्र पर साधु जिन नियमों का सेवन करते हैं उन्हें करण अथवा करणगुण कहते हैं और जिन नियमों का निरंतर आचरण किया जाता है, वे चरण अथवा चरणगुण कहलाते हैं। करण के सत्तर भेद इस प्रकार हैं पिंडविसोही समिइ भावण पडिमा य इन्दियनिरोहो । पडिलेहण गुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ॥ —ओघनियुक्ति गाथा ३ आहार, वस्त्र, पात्र और शय्या की शुद्ध गवेषणा, पांच समिति, अनित्य आदि बारह भावनाएं, बारह प्रतिमाएं, पंच इन्द्रियों का निग्रह, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन गुप्ति एवं चार प्रकार के अभिग्रह (ये करण गुण के सत्तर भेद हैं)। चरण के सत्तर भेद इस प्रकार हैं वय समणधम्म संजम वेयावच्चं च बम्भगुत्तीओ। __णाणाइतियं तवं कोहनिग्गहाई चरणमेयं ॥ पांच महाव्रत, क्षमा आदि इस प्रकार का यतिधर्म, सत्रह प्रकार का संयम, आचार्य आदि का दस प्रकार का वैयावृत्य, नौ ब्रह्मचर्य-गुप्तियां, ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना, बारह प्रकार का तप, क्रोधादि चार कषायों का निग्रह (ये चरणगुण के सत्तर भेद हैं)। दर्शनार्थ परिषदा का गमन और चित्त की जिज्ञासा २१४- तए णं सावत्थीए नयरीए सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउमुह-महापहपहेसु महया जणसद्दे इ वा जाणबूहे इ वा जणबोले इ वा जणकलकले इ वा जणउम्मी इ वा जणउक्कलिया इ वा जणसन्निवाए इ वा जाव (बहुजणो अण्णमण्णं एवं आइक्खइ एवं भासेइ एवं पण्णेवइ एवं परूवेइएवं खलु देवाणुप्पिया ! पासावच्चिजे केसी नाम कुमारसमणे जाइसंपन्ने जाव' गामाणुगामं दूइज्जमाणे इह मागए, इह संपत्ते, इह समोसढे, इहेव सावत्थीए नयरीए बहिया कोट्ठए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तं महप्फलं खलु भो देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं समणाणं भगवंताणं णामगोयस्स वि सवणयाए, किमंगपुण अभिगमण-वंदन-णमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए ? एगस्स वि आयरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग ! पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ? तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं वंदामो णमंसामो सक्काणेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासामो (एयं णं इहभवे पेच्चभवे य हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ-त्ति कटु परिसा निग्गया, केसी नाम कुमारसमणं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति, वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता णच्चासन्ने णाइदूरे सुस्सूसमाणे नमंसमाणे पंजलियउडे अभिमुहे विणएणं) परिसा पज्जुवासइ । १. देखें सूत्र संख्या २१३
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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