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श्रावस्ती नगरी में केशी कुमारश्रमण का पदार्पण
मद्दवप्पहाणे लाघवप्पहाणे खंतिप्पहाणे गुत्तिप्पहाणे मुत्तिप्पहाणे विज्जप्पहाणे मंतप्पहाणे बंभप्पहाणे वेयप्पहाणे नयप्पहाणे नियमप्पहाणे सच्चप्पहाणे सोयप्पहाणे नाणप्पहाणे दंसणप्पहाणे चरित्तप्पहाणे ओराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूडसरीरे संखित्तविपुलतेउलेस्से चउद्दसपुवी चउणाणोवगए पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दुइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव सावत्थी नयरी, जेणेव कोट्ठए चेइए, तेणेव उवागच्छइ, सावत्थी नयरीए बहिया कोट्ठए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हइ, उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणं विहरइ ।
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२१३—– उस काल और उस समय में जातिसंपन्न — उत्तम मातृपक्ष वाले, कुलसंपन्न — उत्तम पितृपक्ष वाले, आत्मबल से युक्त, अनुत्तर विमानवासी देवों से भी अधिक रूपवान् (शरीर - सौन्दर्यशाली), विनयवान्, सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चरित्र के धारक, लज्जावान् पाप कार्यों के प्रति भीरु, लाघववान्, (द्रव्य से अल्प उपधि वाले और भाव से ऋद्धि, रस और साता रूप तीन गौरवों से रहित), लज्जालाघवसंपन्न, ओजस्वी मानसिक तेज से संपन्न, तेजस्वीशारीरिक कांति से देदीप्यमान, वचस्वी सार्थक वचन बोलने वाले, यशस्वी, क्रोध को जीतने वाले, मान को जीतने वाले, माया को जीतने वाले, लोभ को जीतने वाले, जीवित रहने की आकांक्षा एवं मृत्यु के भय से विमुक्त, तपःप्रधान अर्थात् उत्कृष्ट तप करने वाले, गुणप्रधान अर्थात् उत्कृष्ट संयम गुण के धारक, करणप्रधान (पिडंविशुद्धि आदि करणसत्तरी में प्रधान), चरणप्रधान (महाव्रत आदि चरणसत्तरी में प्रधान), निग्रह - प्रधान ( मन और इन्द्रियों की अनाचार में प्रवृत्ति को रोकने में सदैव सावधान), तत्त्व का निश्चय करने में प्रधान, आर्जवप्रधान (माया का निग्रह करने वाले), मार्दवप्रधानं ( अभिमानरहित), लाघवप्रधान अर्थात् क्रिया करने के कौशल में दक्ष, क्षमाप्रधान अर्थात् क्रोध का निग्रह करने में प्रधान, गुतिप्रधान ( मन, वचन, काय के संयमी ), मुक्ति (निर्लोभता) में प्रधान, विद्याप्रधान (देवता - अधिष्ठित प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं में प्रधान), मंत्रप्रधान (हरिणेगमैषी आदि देवों से अधिष्ठित अथवा साधना से प्राप्त होने वाली विद्याओं में प्रधान), ब्रह्मचर्य अथवा समस्त कुशल अनुष्ठानों में प्रधान, वेदप्रधान अर्थात् लौकिक और लोकोत्तर आगमों में निष्णात, नयप्रधान अर्थात् समस्त वाचनिक अपेक्षाओं के मर्मज्ञ, नियमप्रधान—–— विचित्र अभिग्रहों को धारण करने में कुशल, सत्यप्रधान, शौचप्रधान ( द्रव्य और भाव ममत्व रहित), ज्ञानप्रधान, दर्शनप्रधान, चारित्रप्रधान, उदार, घोर परिषहों, इन्द्रियों और कषायों आदि आन्तरिक शत्रुओं का निग्रह करने में कठोर, घोरव्रती अप्रमत्त भाव से महाव्रतों का पालन करने वाले, घोरतपस्वी —— महातपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी— उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, शरीरसंस्कार के त्यागी, विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में ही समाये रखने वाले, चौदह पूर्वों के ज्ञाता, मतिज्ञानादि मन: पर्यायज्ञानपर्यन्त चार ज्ञानों के धनी पार्वापत्य (भगवान् पार्श्वनाथ की शिष्यपरम्परा के) केशी नामक कुमार श्रमण ( कुमार अवस्था में दीक्षित साधु) पांच सौ अनगारों से परिवृत्त होकर अनुक्रम से चलते हुए, ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए, सुखे-सुखे विहार करते हुए जहां श्रावस्ती नगरी थी, जहां कोष्ठक चैत्य था, वहां पधारे एवं श्रावस्ती नगरी के बाहर कोष्ठक चैत्य में यथोचित अवग्रह को ग्रहण किया अर्थात् स्थान की याचना की और फिर अवग्रह ग्रहण कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे ।
विवेचन— मूल पाठ में आगत 'करणप्पहाणे' एवं 'चरणप्पहाणे' पद में करण और चरण शब्द करणसत्तरी और चरणसत्तरी के बोधक हैं। इन दोनों का तात्पर्य है—करण के सत्तर भेद और चरण के सत्तर भेद । प्रयोजन होने