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इसलिए वह 'गणिपिटक' कहलाया। उस गुम्फन के १. आचार, २. सूत्रकृत, ३. स्थान, ४. समवाय,५. भगवती, ६. ज्ञाताधर्मकथा, ७. उपासकदशा, ८. अन्तकृद्दशा, ९. अनुत्तरौपपातिकदशा, १०. प्रश्नव्याकरण, ११. विपाक, १२. दृष्टिवाद, ये मौलिक बारह भाग हुए, इसलिए उसका दूसरा नाम 'द्वादशांगी' है। इस तरह प्रणेता की दृष्टि से आगम-" साहित्य 'अंगप्रविष्ट' और 'अनंगप्रविष्ट' इन दो भागों में विभक्त हुआ। भगवान् महावीर के प्रधान शिष्य गणधरों ने जिस साहित्य की रचना की, वह 'अंगप्रविष्ट' है। स्थविरों ने भगवान् महावीर की वाणी के आधार से जिस साहित्य की संरचना की वह अनंगप्रविष्ट' है। बारह अंगों के अतिरिक्त सारा आगमसाहित्य अनंगप्रविष्ट के अन्तर्गत आता है। द्वादशांगी का आगम-साहित्य में प्रमुखतम स्थान रहा है। वह स्वतः प्रमाण है। द्वादशांगी के अतिरिक्त जो आगम हैं, वे परतःप्रमाण हैं अर्थात् जो द्वादशांगी से अविरुद्ध हैं, शेष अप्रमाण हैं। राजप्रश्नीय : नामकरण
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जैनों का आधारभूत प्राचीनतम साहित्य आगम है और वह श्रुत भी है। राजप्रश्नीयसूत्र की परिगणना अंगबाह्य आगमों में की गई है। वह द्वितीय उपांग है। आचार्य देववाचक ने इसका नाम 'रायपसेणिय' दिया है। आचार्य मलयगिरि ने 'रायपसेणीअ' लिखा है। वे इसका संस्कृत रूप 'राजप्रश्नीयम्' करते हैं। सिद्वसेनगणी ने तत्त्वार्थवृत्ति में 'राजप्रसेनकीय' लिखा है। तो मुनिचन्द्र सूरि ने 'राजप्रसेनजित' लिखा है। अक्रियावाद : एक चिन्तन
आचार्य मलयगिरि ने रायपसेणीय को सूत्रकृतांग का उपांग माना है। उनका मन्तव्य है कि सूत्रकृतांग में क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानीवादी, विनयवादी प्रभृति पाखण्डियों के तीन सौ तिरेसठ मत प्रतिपादित हैं, उनमें से अक्रियावादी मत को आधार बनाकर राजा प्रदेशी ने केशी श्रमण से प्रश्नोत्तर किये। सूत्रकृतांग५ और भगवती१६ में चार समवसरणों में एक अक्रियावादी बताया है। वहां पर अक्रियावादी का अर्थ अनात्मवादी क्रिया के अभाव को मानने वाला, केवल चित्तशुद्धि को आवश्यक और क्रिया को अनावश्यक मानने वाला—किया है। स्थानांग सूत्र में अक्रियावादी शब्द का प्रयोग अनात्मवादी और एकान्तवादी दोनों अर्थों में मिलता है। वहां अक्रियावादी के एकवादी, ' अनेकवादी, मितवादी, निर्मितवादी, सातवादी, समुच्छेदवादी, नित्यवादी, असत्परलोकवादी ये आठ प्रकार बताये हैं। उनमें से छह वाद एकान्त दृष्टि वाले हैं। समुच्छेदवाद और नास्ति-मोक्षपरलोकवाद ये दो अनात्मवाद हैं। नयोपदेश ग्रन्थ में उपाध्याय यशोविजयजी ने धन॑श की दृष्टि से जैसे—चार्वाक को नास्तिक अक्रियावादी कहा है वैसे ही धर्मांश की दृष्टि से सभी एकान्तवादियों को नास्तिक कहा है।८
सूत्रकृतांगनियुक्ति में अक्रियावादियों के चौरासी प्रकार बताये हैं। यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता कि
१४. नन्दीसूत्र, सूत्र-८३ १५. सूत्रकृतांग–१/१२/१ १६. भगवती–३०/१ ७. अट्ठ अकिरियावाई पण्णत्ता तं जहा—एगावाई, अणेगावाई, मितवाई, णिम्मितवाई, सायवाई, समुच्छेदवाई, णित्तावाई, णसंतपरलोगवाई।
-स्थानांग ८/२२ धयंशे नास्तिको ह्येको, बार्हस्पत्यः प्रकीर्तितः । धर्माशे नास्तिका ज्ञेयाः, सर्वेऽपि परतीर्थिकाः ॥
–नयोपदेश, श्लोक १२६ [१६]