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________________ राजप्रश्नीयसूत्र उस सेयविया नगरी के बाहर ईशान कोण में मृगवन नामक उद्यान था। यह उद्यान रमणीय, नन्दनवन के समान सर्व ऋतुओं के फल-फूलों से समृद्ध, शुभ-सुखकारी, सुरभिगंध और शीतल छाया से समनुबद्ध (व्याप्त) प्रासादिक यावत् प्रतिरूप——असाधारण शोभा से सम्पन्न था। १२८ उस सेयविया नगरी के राजा का नाम प्रदेशी था। प्रदेशी राजा महाहिमवान्, मलय पर्वत, मन्दर एवं महेन्द्र पर्वत जैसा महान् था । किन्तु वह अधार्मिक - ( धर्म विरोधी), अधर्मिष्ठ (अधर्मप्रेमी), अधर्माख्यायी (अधर्म का कथन और प्रचार करने वाला), अधर्मानुग (अधर्म का अनुसरण करने वाला), अधर्मप्रलोकी (सर्वत्र अधर्म का अवलोकन करने वाला), अधर्मप्रजनक (विशेष रूप से अधार्मिक आचार-विचारों का जनक — प्रचार करने वाला—प्रजा को अधर्माचरण की ओर प्रवृत्त करने वाला), अधर्मशीलसमुदाचारी (अधर्ममय स्वभाव और आचारवाला) तथा अधर्म से ही आजीविका चलाने वाला था। वह सदैव 'मारो, छेदन करो, भेदन करो' इस प्रकार की आज्ञा का प्रवर्तक था। अर्थात् मारो आदि वचनों के द्वारा अपने आश्रितों को जीवों की हिंसा वगैरह के कार्यों में लगाये रखता था। उसके हाथ सदा रक्त से भरे रहते थे। साक्षात् पाप का अवतार था । प्रकृति से प्रचण्ड - क्रोधी, रौद्र भयानक और क्षुद्र—–अधम था । वह साहसिक (बिना विचारे प्रवृत्ति करनेवाला ) था । उत्कंचन — धूर्त, बदमाशों और ठगों को प्रोत्साहन देने वाला, उकसाने वाला था। लांच - रिश्वत लेने वाला, , वंचक — दूसरों को ठगने वाला, धोखा देने वाला, मायावी, कपटी —— वकवृत्ति वाला, कूट-कपट करने में चतुर और अनेक प्रकार के झगड़ा-फसाद रचकर दूसरों को दुःख देने वाला था । निश्शील ——शील रहित था । निर्व्रत — हिंसादि पापों से विरत न होने से व्रतरहित था, क्षमा आदि गुणों का अभाव होने से निर्गुण था, परस्त्रीवर्जन आदि रूप मर्यादा से रहित होने से निर्मर्याद था, कभी भी उसके मन में प्रत्याख्यान, पौषध, उपवास आदि करने का विचार नहीं आता था । अनेक द्विपद- मनुष्यादि, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृप–—–—सर्प आदि की हत्या करने, उन्हें मारने, प्राणरहित करने, विनाश करने से साक्षात् अधर्म की ध्वजा जैसा था, अथवा अधर्म रूपी केतुग्रह था । गुरुजनों- —माता पिता आदि को देखकर भी उनका आदर करने के लिए आसन से खड़ा नहीं होता था, उनका विनय नहीं करता था और जनपद के प्रजाजनों से राजकर लेकर भी उनका सम्यक् प्रकार से यथार्थ रूप में पालन और रक्षण नहीं करता था। विवेचन— 'केकय-अर्ध ' शास्त्रों में साढ़े पच्चीस (२५ ।। ) आर्य देशों और उन देशों की एक—एक राजधानी के नामों का उल्लेख है। पच्चीस देश तो पूर्ण रूप से आर्य थे, किन्तु केकय देश का आधा भाग आर्य था। बौद्ध ग्रंथों में भी केकय देश का उल्लेख है । उस देश का वर्तमान स्थान उत्तर में पेशावर (पाकिस्तान) के आसपास होना चाहिए, ऐसा इतिहासवेत्ताओं का मंतव्य है । परन्तु अभी भी उसके नाम और भौगोलिक स्थिति का निश्चित निर्णय नहीं हो सकता है। मूल पाठ में 'अद्धे' शब्द है, जिसकी टीकाकार ने 'केकया नाम अर्धम्' लिखकर मूल शब्द की व्याख्या की है। राजा दशरथ की एक रानी का नाम 'कैकयी' था। जो इस केकय देश की थी, जिससे उसका नाम कैकयी पड़ा हो, यह संभव है। 'सेयविया'—केकय देश की राजधानी के रूप में इस नगरी का उल्लेख सूत्रों में किया गया है। आवश्यक सूत्र बताया है कि श्रमण भगवान् महावीर छद्मस्थ-अवस्था में विहार करते हुए उत्तर वाचाल प्रदेश में गये और वहां से‘सेयविया' गये । इस नगरी के श्रमणोपासक राजा प्रदेशी ने भगवान् की महिमा की और उसके पश्चात् भगवान् वहां 1
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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