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________________ १२६ सूर्याभदेव विषयक गौतम की जिज्ञासा २०६ प्र०— सूरियाभस्स णं भंते ! देवस्स केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता । प्र०— सूरियाभस्स णं भंते ! देवस्स सामाणियपरिसोववण्णगाणं देवाणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? उ— गोयमा ! चत्तारि पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता । महिड्डीए महज्जुतीए, महब्बले, महायसे, महासोक्खे, महाणुभागे सूरियाभे देवे । अहो णं भंते ! सूरियाभे देवे महिड्डीए जाव महाणुभागे । सूरियाणं भंते ! देवेणं सा दिव्वा देविड्डी, सा दिव्वा देवज्जुई, से दिव्वे देवाणुभागे किण्णा लद्धे, किण्णा पत्ते, किण्णा अभिसमन्नागए ? पुव्वभवे के आसी ? किंनामए वा ? को वा गुत्तेणं ? कयरंसि वा गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा आगरंसि वा आसमंसि वा संबाहंसि वा सन्निवेसंसि वा ? किं वा दच्चा, किं वा भोच्चा किं वा किच्चा, किं वा समायरित्ता, कस्स वा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मयं सुवयणं सुच्चा निसम्म जं णं सूरियाणं देवेणं सा दिव्वा देवड्डी जाव देवाणुभागे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए ? २०६— सूर्याभदेव के समस्त चरित को सुनने के पश्चात् भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर से निवेदन किया— राजप्रश्नीयसूत्र प्र. - भदन्त ! सूर्याभदेव की भवस्थिति कितने काल की है ? उ.- गौतम ! सूर्याभदेव की भवस्थिति चार पल्योपम की है। प्र. - - भगवन्! सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देवों की स्थिति कितने काल की है ? उ.- गौतम ! उनकी चार पल्योपम की स्थिति है । यह सूर्याभदेव महाऋद्धि, महाद्युति, महान् बल, महायश, महासौख्य और महाप्रभाव वाला है। भगवान् के इस कथन को सुनकर गौतम प्रभु ने आश्चर्य चकित होकर कहा – अहो भदन्त ! यह सूर्याभव ऐसा महाऋद्धि, यावत् महाप्रभावशाली है। उन्होंने पुनः प्रश्न किया— भगवन्! सूर्याभदेव को इस प्रकार की वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवप्रभाव कैसे मिला है ? उसने कैसे प्राप्त किया ? किस तरह से अधिगत किया है, स्वामी बना है ? वह सूर्याभदेव पूर्वभव में कौन था ? उसका क्या नाम और गोत्र था ? वह किस ग्राम, नगर निगम (व्यापारप्रधान नगर), राजधानी, खेट (ऊंचे प्राकार से वेष्टित नगर), कर्बट (छोटे प्राकार से घिरी वस्ती), मडंब ( जिसके आसपास चारों ओर एक योजन तक कोई दूसरा गांव न हो), पत्तन, द्रोणमुख (जल और स्थलमार्ग से जुड़ा नगर), आकर (खानों वाला स्थान, नगर), आश्रम (आश्रम ऋषि-महर्षि प्रधान स्थान ), संबाह (संबाध— जहां यात्री पड़ाव डालते हों, ग्वाले आदि बसते हों), संनिवेश सामाय जनों की बस्ती का निवासी था ? इसने ऐसा क्या दान में दिया, ऐसा अन्त - प्रान्तादि विरस आहार
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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