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________________ ११४ राजप्रश्नीयसूत्र पिणद्धित्ता मुत्तावलिं पिणद्धेति पिणद्धित्ता, रयणावलिं पिणद्धेइ, पिणद्धित्ता एवं अंगयाइं केयूराइं कडगाइं तुडियाई कडिसुत्तगं दसमुद्दाणंतगं वच्छसुत्तगं मुरविं कंठमुरविं पालंबं कुंडलाइं चूडामणिं मउडं पिणद्धेइ, गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमेणं चउव्विहेणं मल्लेणं कप्परुक्खगं पिव अप्पाणं अलंकियविभूसियं करेइ, करित्ता दद्दर-मलय-सुगंधगंधिएहिं गायाइं भुखंडेइ दिव्वं च सुमणदामं पिणद्धेइ । __ १९५- तदनन्तर उस सूर्याभ देव की सामानिक परिषद् के देवों ने उसके सामने अलंकार—भांड उपस्थित किया। ____ इसके बाद सूर्याभदेव ने सर्वप्रथम रोमयुक्त सुकोमल काषायिक सुरभि गंध से सुवासित वस्त्र से शरीर को पोंछा। पौंछकर शरीर पर सरस गोशीर्ष चंदन का लेप किया, लेप करके नाक की नि:श्वास से भी उड़ जाये, ऐसा अति बारीक नेत्राकर्षक, सुन्दर वर्ण और स्पर्श वाले, घोड़े के थूक (लार) से भी अधिक सुकोमल, धवल जिनके पल्लों और किनारों पर सुनहरी बेलबूटे बने हैं, आकाश एवं स्फटिक मणि जैसी प्रभा वाले दिव्य देवदूष्य (वस्त्र) युगल को धारण किया। देवदूष्य युगल धारण करने के पश्चात् गले में हार पहना, अर्धहार पहना, एकावली पहनी, मुक्ताहार पहना, रत्नावली पहनी, एकावली पहन कर भुजाओं में अंगद, केयूर (बाजूबन्द), कड़ा, त्रुटित, करधनी, हाथों की दशों अंगुलियों में दस अंगूठियां, वक्षसूत्र, मुरवि (मादलिया), कंठमुरवि (कंठी), प्रालंब (झूमके), कानों में कुंडल पहने तथा मस्तक पर चूड़ामणि (कलगी) और मुकुट पहना। इन आभूषणों को पहनने के पश्चात् ग्रंथिम (गूंथी हुई), वेष्टिम (लपेटी हुई), पूरिम (पूरी हुई) और संघातिम (सांधकर बनाई हुई), इन चार प्रकार की मालाओं से अपने को कल्पवृक्ष के समान अलंकृत—विभूषित किया। विभूषित कर दद्दर मलय चंदन की सुगन्ध से सुगन्धित चूर्ण को शरीर पर भरका छिडका और फिर दिव्य पुष्पमालाओं को धारण किया। विवेचन– उपर्युक्त वस्त्र परिधान एवं आभूषणों को पहनने से यह ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर के समकालीन भारतीय जन दो वस्त्र पहनने के साथ-साथ यथायोग्य आभूषणों को धारण करते थे। शृंगारप्रसाधनों में अतिशय सुरभिगंध वाले पदार्थों का उपयोग किया जाता था। वस्त-वर्णन तो तत्कालीन वस्त्र-कला की परम प्रकर्षता की प्रतीति कराता है। उस समय ‘पाउडर' चूर्ण का भी प्रयोग किया जाता था। सूर्याभदेव द्वारा कार्य-निश्चय १९६– तए णं से सूरियाभे देवे केसालंकारेणं, मल्लालंकारेणं आभरणालंकारेणं वत्थालंकारेणं चउव्विहेण अलंकारेण अलंकिय-विभूसिए समाणे पडिपुण्णालंकारे सीहासणाओ अब्भुटेति, अब्भुट्टित्ता अलंकारियसभाओ पुरथिमिल्लेणं दारेणं पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव ववसायसभा तेणेव उवागच्छति, ववसायसभं अणुपयाहिणीकरेमाणे अणुपयाहिणीकरेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति जेणेव सीहासणवरगए (?) जाव सन्निसन्ने । तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा देवा पोत्थयरयणं उवट्ठवेंति, तते णं से सूरियाभे देवे पोत्थयरयणं गिण्हति, गिण्हित्ता पोत्थयरणं मुयइ मुइत्ता पोत्थयरयणं विहाडेइ, विहाडित्ता पोत्थयरयणं वाएति, पोत्थयरयणं वाएत्ता धम्मियं ववसायं ववसइ, ववसइत्ता पोत्थयरयणं
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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