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सिद्धायतन का प्रमार्जन
११५ पडिनिक्खवइ, सीहासणाओ अब्भुटेति, अब्भुटेत्ता ववसायसभातो पुरथिमिल्लेणं दारेणं पडिनिक्खमित्ता जेणेव नंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता गंदापुक्खरिणिं पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहइ हत्थपादं पक्खालेति, पक्खलित्ता आयंते चोक्खे परमसुइभए एगं महं सेयं रययामयं विमलं सलिलपुण्णं मत्तगयमुहागितिकुंभसमाणं भिंगारं पगेण्हित्ता जाई तत्थ उत्पलाइं जाव सतसहस्सपत्ताई ताई गेण्हति गेण्हित्ता गंदातो पुक्खरिणीतो पच्चुत्तरति, पच्चुत्तरित्ता जेणेव सिद्धायतणे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ।
१९६- तत्पश्चात् केशालंकारों (केशों को सजाने वाले अलंकार), पुष्प-मालादि रूप माल्यालंकारों, हार आदि आभूषणालंकारों एवं देवदूष्यादि वस्त्रालंकारों—इन चारों प्रकार के अलंकारों से (अलंकृत-विभूषित होकर वह सूर्याभदेव सिंहासन से उठकर) अलंकारसभा के पूर्वदिग्वर्ती द्वार से बाहर निकला। निकलकर व्यवसाय सभा में आया एवं बारंबार व्यवसायसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से उसमें प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर जहां सिंहासन था वहां आकर यावत् सिंहासन पर आसीन हुआ।
तत्पश्चात् सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देवों ने व्यवसायसभा में रखे पुस्तक-रत्न को उसके समक्ष रखा। सूर्याभदेव ने उस उपस्थित पुस्तक-रत्न को हाथ में लिया, हाथ में लेकर पुस्तक-रत्न खोला, खोलकर उसे बांचा। पुस्तकरत्न को बांचकर धर्मानुगत-धार्मिक कार्य करने का निश्चय किया। निश्चय करके वापस यथास्थान पुस्तकरत्न को रखकर सिंहासन से उठा एवं व्यवसाय सभा के पूर्व-दिग्वर्ती द्वार से बाहर निकलकर जहां नन्दापुष्करिणी थी, वहां आया। आकर पूर्व-दिग्वर्ती तोरण और त्रिसोपान पंक्ति से नंदा पुष्करिणी में प्रविष्ट हुआ उतरा। प्रविष्ट होकर हाथ पैर धोये। हाथ-पैर धोकर और आचमन-कुल्ला कर पूर्ण रूप से स्वच्छ और परम शुचिभूत शुद्ध होकर मत्त गजराज की मुखाकृति जैसी एक विशाल श्वेतधवल रजतमय जल से भरी हुई भंगार (झारी) एवं वहां के उत्पल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों को लिया। फिर नंदा पुष्करिणी से बाहर निकला। बाहर निकलकर सिद्धायतन की
ओर चलने के लिए उद्यत हुआ। सिद्धायतन का प्रमार्जन
१९७- तए णं ते सूरियाभं देवं चत्तारि य सामाणियसाहस्सीओ जाव सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अन्ने य बहवे सूरियाभविमाणवासिणो जाव देवीओ य अप्पेगतिया देवा उप्पलहत्थगा जाव सय-सहस्सपत्त-हत्थगा सूरियाभं देवं पिट्ठतो समणुगच्छंति ।
तए णं तं सूरियाभं देवं बहवे आभिओगिया देवा य देवीओ य अप्पेगतिया कलसहत्थगा जाव अप्पेगतिया धूवकडुच्छयहत्थगता हट्ठतुट्ट जाव सूरियाभं देवं पिट्ठतो समणुगच्छंति ।।
१९७– तब उस सूर्याभदेव के चार हजार सामानिक देव यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देव तथा कितने ही अन्य बहुत से सूर्याभविमानवासी देव और देवी भी हाथों में उत्पल यावत् शतपथ-सहस्रपत्र कमलों को लेकर सूर्याभदेव के पीछे-पीछे चले।
___ तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव के बहुत-से आभियोगिक देव और देवियां हाथों में कलश यावत् धूप-दानों को लेकर हृष्ट-तुष्ट यावत् विकसितहृदय होते हुए सूर्याभदेव के पीछे-पीछे चले।