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राजप्रश्नीयसूत्र
छठी तक प्रत्येक अनुक्रम से एक-एक अन्तर्मुहूर्त के बाद पूर्ण करता है।
वैक्रिय और आहारक शरीर वाले जीव पहली पर्याप्ति एक समय में पूर्ण कर लेते हैं और उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में दूसरी पर्याप्ति पूर्ण करते हैं और उसके बाद तीसरी से छठी पर्यन्त अनुक्रम से एक-एक समय में पूरी करते हैं। लेकिन देव पांचवीं और छठी इन दोनों पर्याप्तियों को अनुक्रम से पूर्ण न कर एक साथ एक समय में ही पूरी कर लेते हैं। ____ सूत्र में "भासामणपज्जत्तीए" पद से सूर्याभदेव को पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त होने का संकेत देवों के पांचवीं और छठी भाषा और मन-पर्याप्तियां एक साथ पूर्ण होने की अपेक्षा किया गया है। सामानिक देवों द्वारा कृत्य-संकेत
१८७- तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा देवा सूरियाभस्स देवस्स इमेयारूवमझत्थियं जाव समुप्पन्नं समभिजाणित्ता जेणेव सूरियाभे देवे तेणेव उवागच्छंति, सूरियाभं देवं करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धाविन्ति, वद्धावित्ता एवं वयासी
एवं खलु देवाणुप्पियाणं सूरियाभे विमाणे सिद्धायतणंसि जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमित्ताणं अट्ठसयं संनिक्खित्तं चिटुंति, सभाए णं सुहम्माए माणवए चेइयखंभे, वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहूओ जिणसकहाओ संनिक्खित्ताओ चिटुंति, ताओ णं देवाणुप्पियाणं अण्णेसिं च बहूणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ जाव पज्जुवासणिज्जाओ ।
तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुब्बिं करणिज्जं, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पच्छा करणिज्जं । तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुव्विं सेयं, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पच्छा सेयं । तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुट्विं पि पच्छा वि हियाए, सुहाए, खमाए, निस्सेयसाए, आणुगामियत्ताए भविस्सति ।
१८७– तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देव सूर्याभदेव के इस आन्तरिक विचार यावत् उत्पन्न संकल्प को अच्छी तरह से जानकर सूर्याभदेव के पास आये और उन्होंने दोनों हाथ जोड़ आवर्त पूर्वक मस्तक पर अंजलि करके जय-विजय शब्दों से सूर्याभदेव को अभिनन्दन करके इस प्रकार कहा____ आप देवानुप्रिय के सूर्याभविमान स्थित सिद्धायतन में जिनोत्सेधप्रमाण वाली एक सौ आठ जिन-प्रतिमायें विराजमान हैं तथा सुधर्मा सभा के माणवक-चैत्यस्तम्भ में वज्ररत्नमय गोल समुद्गकों (डिब्बों) में बहुत-सी जिन अस्थियां व्यवस्थित रूप से रखी हुई हैं। वे आप देवानुप्रिय तथा दूसरे भी बहुत से वैमानिक देवों एवं देवियों के लिए अर्चनीय यावत् पर्युपासनीय हैं।
___ अतएव आप देवानुप्रिय के लिए उनकी पर्युपासना करने रूप कार्य करने योग्य है और यही कार्य पीछे करने योग्य है। आप देवानुप्रिय के लिए यह पहले भी श्रेय-रूप है और बाद में भी यही श्रेय रूप है। यही कार्य आप देवानुप्रिय के लिए पहले और पीछे भी हितकर, सुखप्रद, क्षेमकर, कल्याणकर एवं परम्परा से सुख का साधन रूप होगा।