________________
उपपातान्तर सूर्याभदेव का चिन्तन
१०३
तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गयस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए, मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था — किं मे पुव्विं करणिज्जं ? किं मे पच्छा करणिज्जं किं मे पुव्विं सेयं ? किं मे पच्छा सेयं ? किं मे पुव्विं पि पच्छा वि हियाए सुहाए खमाए णिस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ ?
१८६— उस काल और उस समय में तत्काल उत्पन्न होकर वह सूर्याभ देव (१) आहार -पर्याप्ति, (२) शरीर-पर्याप्ति, (३) इन्द्रिय-पर्याप्ति, (४) श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति और (५) भाषामन: पर्याप्ति – इन पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त अवस्था को प्राप्त हुआ ।
पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्तभाव को प्राप्त होने के अनन्तर उस सूर्याभदेव को इस प्रकार का आन्तरिक विचार, चिन्तन, अभिलाष एवं मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि — मुझे पहले क्या करना चाहिए ? और उसके अनन्तर क्या करना चाहिए ? मुझे पहले क्या करना उचित (शुभ, कल्याणकर) है ? और बाद में क्या करना उचित है ? तथा पहले भी और पश्चात् भी क्या करना योग्य है जो मेरे हित के लिए, सुख के लिए, क्षेम के लिए, कल्याण के लिए और अनुगामी रूप (परंपरा) से शुभानुबंध का कारण होगा ?
विवेचन — जीव की उस शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं जिसके द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करने तथा उनको आहार, शरीर आदि के रूप में परिवर्तित करने का कार्य होता है । संसारी जीव को पुद्गलों को ग्रहण करने और परिणमाने की शक्ति पुद्गलों के उपचय (पोषण, वृद्धि) से प्राप्त होती है एवं इस उपचय से ग्रहण और परिणमन करता है। इस प्रकार के कार्य-कारण भाव से उपचय, ग्रहण और परिणमन इन तीनों का क्रम निरन्तर चलता रहता है।
पर्याप्ति के छह भेद हैं—१. आहार - पर्याप्ति, २. शरीर पर्याप्ति, ३. इन्द्रिय-पर्याप्ति, ४. श्वासोच्छ्वास - पर्याप्ति, ५. भाषा - पर्याप्ति और ६. मन पर्याप्ति ।
उक्त छह पर्याप्तियों के अनुक्रम से एकेन्द्रिय जीवों के आदि की चार, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों के आदि की चार पर्याप्तियों के साथ भाषा-पर्याप्ति को मिलाने से पांच तथा संज्ञी - पंचेन्द्रिय जीवों के मनपर्यन्त छहों पर्याप्तियां होती हैं।
इहभव सम्बन्धी शरीर को छोड़ने के पश्चात् जब जीव परभव सम्बन्धी शरीर ग्रहण करने के लिए उत्पत्तिस्थान में पहुंच कर कार्मण शरीर के द्वारा प्रथम समय में जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है, उनके आहार - पर्याप्ति आदि रूप छह विभाग हो जाते हैं और उनके द्वारा एक साथ आहार आदि छहों पर्याप्तियों का बनना प्रारम्भ हो जाता है, लेकिन उनकी पूर्णता क्रमशः होती है। अर्थात् आहार के बाद शरीर, शरीर के बाद इन्द्रिय आदि। यह क्रम मनपर्याप्तिपर्यन्त समझना चाहिए। इसको एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझना चाहिए।
जैसे कि छह सूत कातने वाली स्त्रियों ने रुई का कातना तो एक साथ प्रारम्भ किया, किन्तु उनमें मोटा सूत कातने वाली जल्दी कात लेती है और उत्तरोत्तर बारीक-बारीक कातने वाली अनुक्रम से विलम्ब से कातती हैं। इसी प्रकार यद्यपि पर्याप्तियों का प्रारम्भ तो एक साथ हो जाता है किन्तु उनकी पूर्णता अनुक्रम से होती है।
पर्याप्तियां औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीन शरीरों में होती हैं और उनमें उनकी पूर्णता का क्रम इस प्रकार जानना चाहिए—
औदारिक शरीर वाला जीव पहली आहार -पर्याप्ति एक समय में पूर्ण करता है और इसके बाद दूसरी से लेकर