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________________ राजप्रश्नीयसूत्र इन वापिकाओं आदि के अन्तरालवर्ती स्थानों में मनुष्यों और पक्षियों के झूलने के लिए झूले हिंडोले पड़े हैं और बहुत से उत्पातपर्वत, नियतिपर्वत, दारुपर्वत, दकमंडप, दकमालक, दकमंच बने हुए हैं। इन वनखण्डों में कहीं-कहीं आलिगृह, मालिगृह, कदलीगृह, लतागृह, मंडप आदि बने हैं और विश्राम करने के लिए जिनमें हंसासन आदि अनेक प्रकार के आसन तथा शिलापट्टक रखे हैं और जहां बहुत से देव - देवियां आआकर विविध प्रकार की क्रीड़ायें करते हुए पूर्वोपार्जित पुण्यकर्मों के फलविपाक को भोगते हुए आनन्दपूर्वक विचरण करते हैं। ८८ १६०—– तस्स णं उवयारियालेणस्स चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वण्णओ, तोरणा, झया, छत्ताइच्छत्ता । तस्स णं उवयारियालणस्स उवरिं, बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीणं फासो । १६० – उस उपकारिकालयन की चारों दिशाओं में चार त्रिसोपानप्रतिरूपक (तीन-तीन सीढ़ियों की पंक्ति) बने हैं। या विमान के सोपानों के समान इन त्रिसोपान - प्रतिरूपकों का वर्णन भी तोरणों, ध्वजाओं, छत्रातिछत्रों आदि पर्यन्त यहां करना चाहिए। उस उपकारिकालयन के ऊपर अतिसम, रमणीय भूमिभाग है । यानविमानवत् मणियों के स्पर्शपर्यन्त इस भूमिभाग का वर्णन यहां करना चाहिए । विवेचन — उपकारिकालयन की त्रिसोपान - पंक्तियों और भूमिभाग का वर्णन यानविमानवत् करने की सूचना प्रस्तुत सूत्र में दी गई है। संक्षेप में उक्त वर्णन इस प्रकार है— इन त्रिसोपानों की नेम वज्ररत्नों से बनी हुई हैं। रिष्टरत्नमय इनके प्रतिष्ठान (पैर रखने के स्थान ) हैं । वैडूर्यरत्नों से बने इनके स्तम्भ हैं और फलक-पाटिये स्वर्णरजतमय हैं। नाना मणिमय इनके अवलंबन और कटकड़ा हैं। मन को प्रसन्न करने वाले अतीव मनोहर हैं। इन प्रत्येक त्रिसोपान - पंक्तियों के आगे अनेक प्रकार के मणि-रत्नों से बने हुए बेलबूटों आदि से सुशोभित तोरण बंधे हैं और तोरणों के ऊपरी भाग स्वस्तिक आदि आठ-आठ मंगलों एवं वज्ररत्नों से निर्मित और कमलों जैसी सुरभिगंध से सुगंधित, रमणीय चामरों से शोभित हो रहे हैं। इसके साथ ही अत्यन्त शोभनीक रत्नों से बने हुए छत्रातिछत्र, पताकायें, घंटा-युगल एवं उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुंडरीक, महापुंडरीक आदि कमलों झूम भी उन तोरणों पर लटक रहे हैं आदि । उस उपकारिकालयन का भूमिभाग आलिंग- पुष्कर, मृदंगपुष्कर, सरोवर, करतल, चन्द्रमंडल, सूर्यमंडल आदि के समान अत्यन्त सम और रमणीय है। उस भूभाग में अंजन, खंजन, सघन मेघ- घटाओं आदि के कृष्ण वर्ण से, भृंगकीट, भृंगपंख, नीलकमल, नील-अशोकवृक्ष आदि के नील वर्ण से, प्रात:कालीन सूर्य, पारिजात, पुष्प, हिंगलुक, प्रबाल आदि के रक्त वर्ण से, स्वर्णचंपा, हरताल, चिकुर, चंपाकुसुम आदि के पीत वर्ण से और शंख, चन्द्रमा, कुमुद आदि के श्वेत वर्ण से भी अधिक श्रेष्ठ कृष्ण आदि वर्ण वाली मणियां जड़ी हुई हैं। वे सभी मणियां इलायची, चंदन, अगर, लवंग आदि सुगंधित पदार्थों से भी अधिक सुरभि गंध वाली हैं और बूर — रुई, मक्खन, हंसगर्भ नामक रुई विशेष से भी अधिक सुकोमल उनका स्पर्श है।
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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