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पद्मवरवेदिका का वर्णन
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हे गौतम! वह पद्मवरवेदिका पहले (भूतकाल) में कभी नहीं थी, ऐसा नहीं है, अभी (वर्तमान में) नहीं है, ऐसा भी नहीं है और आगे (भविष्य में) नहीं रहेगी ऐसा भी नहीं है, किन्तु पहले भी थी, अब भी है और आगे भी रहेगी। इस प्रकार त्रिकालावस्थायी होने से वह पद्मवरवेदिका ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है।
विवेचन— प्रस्तुत सूत्र में पद्मवरवेदिका की शाश्वतता विषयक गौतम स्वामी की जिज्ञासा का समाधान द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो दृष्टियों (नयों से) किया गया है।
भगवान् ने पद्मवरवेदिका को द्रव्यार्थिक दृष्टि से शाश्वत बताने के साथ वर्णादि पर्यायों के परिवर्तनशील होने से अशाश्वत बताया है क्योंकि द्रव्य-पर्याय का यही स्वरूप है। नित्य शाश्वत ध्रुव होते हुए भी द्रव्य में भावात्मकपर्यायात्मक परिवर्तन प्रतिसमय होता रहता है। इन्हीं परिवर्तनों को पर्याय कहते हैं और पर्यायें अशाश्वत होती हैं।
__पर्यायें अवश्य ही प्रतिसमय परिवर्तित होती रहती हैं परन्तु प्रदेशों के लिए यह नियम नहीं है। किन्हीं द्रव्यों के प्रदेश नियत भी होते हैं और किन्हीं के अनियत भी। जैसे कि जीव के प्रदेश सभी देश और काल में नियत है, वे कभी घटते-बढ़ते नहीं हैं। किन्तु पुद्गलद्रव्य के प्रदेशों का नियम नहीं है, उनमें न्यूनाधिकता होती रहती है। ___ पद्मवरवेदिका पौद्गलिक है और पर्याय दृष्टि से परिवर्तनशील-अशाश्वत है किन्तु पुद्गल द्रव्य होते हुए भी अनियत प्रदेशी नहीं है।
इन सब विशेषताओं को सूत्र में धुवा, णियया, सासया, अक्खया, अव्वया, अवट्ठिया-ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित पदों से स्पष्ट किया है।
१५९- सा णं पउमवरवेइया एगेणं वणसंडेणं सव्वओ संपरिक्खित्ता ।
से णं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खंभेणं उवयारियालेणसमे परिक्खेवेणं, वणसंडवण्णओ भाणितव्वो जाव विहरंति ।।
१५९– वह पद्मवरवेदिका चारों ओर—सभी दिशा-विदिशाओं में एक वनखंड से परिवेष्टित—घिरी
उस वनखंड का चक्रवालविष्कम्भ (गोलाकार-चौड़ाई) कुछ कम दो योजन प्रमाण है तथा उपकारिकालयन की परिधि जितनी उसकी परिधि है। वहां देव-देवियां विचरण करती हैं, यहां तक वनखण्ड का वर्णन पूर्ववत् यहां कर लेना चाहिए।
विवेचन—सूत्र संख्या १३६-१५१ में वनखण्ड का विस्तार से वर्णन किया है। उसी वर्णन को यहां करने का संकेत 'वनसंडवण्णओ भाणितव्वो जाव विहरंति' पद से किया है। संक्षेप में उक्त वर्णन का सारांश इस प्रकार है- यह वनखंड चारों ओर से एक परकोटे से घिरा हुआ है तथा वृक्षों की सघनता से हरा-भरा अत्यन्त शीतल
और दर्शकों के मन को सुखप्रद है। वनखंड का भूभाग अत्यन्त सम तथा अनेक प्रकार की मणियों और तृणों से उपशोभित है।
इस वनखंड में स्थान-स्थान पर अनेक छोटी-बड़ी बावड़ियां, पुष्करणियां, गुंजालिकायें आदि बनी हुई हैं। इन सबके तट रजतमय हैं और तलभाग में स्वर्ण-रजतमय बालुका बिछी हुई है। कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुंडरीक आदि विविध जाति के कमलों से इनका जल आच्छादित है।