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राजप्रश्नीयसूत्र
१५६– गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से पूछा —हे भदन्त! किस कारण कहा जाता है कि पद्मवरवेदिका है, पद्मवरवेदिका है ? अर्थात् इस वेदिका को पद्मवरवेदिका कहने का क्या कारण है ?
१५७– गोयमा ! पउमवरवेइयाए णं तत्थ-तत्थ देसे तहि-तहिं वेइयासु, वेइयाबाहासु य वेइयफलएसु य वेइयपुडंतरेसु य खंभेसु, खंभबाहासु खंभसीसेसु, खंभपुडंतरेसु, सूईसु, सूईमुखेसु, सूईफलएसु, सूईपुडंतरेसु, पक्खेसु, पक्खबाहासु, पक्खपेरंतेसु, पक्खपुडंतरेसु, बहुयाई उप्पलाइं-पउमाइं-कुमुयाइं णलिणाति-सुभगाइं-सोगंधियाई-पुंडरीयाई-महापुंडरीयाणि-सयवत्ताइंसहस्सवत्ताइं सव्वरयणामयाइं अच्छाइं पडिरूवाई महया वासिक्कछत्तसमाणाइं पण्णत्ताई समणाउसो ! से एएणं अटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ पउमवरवेइया 'पउमवरवेइया' ।
१५७– भगवान् ने उत्तर दिया हे गौतम! पद्मवर-वेदिका के आस-पास की (समीपवर्ती) भूमि में, वेदिका के फलकों—पाटियों में, वेदिकायुगल के अन्तरालों में, स्तम्भों, स्तम्भों की बाजुओं, स्तम्भों के शिखरों, स्तम्भयुगल के अन्तरालों, कीलियों, कीलियों के ऊपरीभागों, कीलियों से जुड़े हुए फलकों, कीलियों के अन्तरालों, पक्षों (स्थान विशेषों), पक्षों के प्रान्त भागों और उनके अन्तरालों आदि-आदि में वर्षाकाल के बरसते मेघों से बचाव करने के लिए छत्राकार—जैसे अनेक प्रकार के बड़े-बड़े विकसित, सर्व रत्नमय स्वच्छ, निर्मल अतीव सुन्दर, उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुंडरीक, महापुंडरीक, शतपत्र और सहस्रपत्र कमल शोभित हो रहे हैं।
इसीलिए हे आयुष्मन् श्रमण गौतम! इस पद्मवरवेदिका को पद्मवरवेदिका कहते हैं। १५८- पउमवरवेइया णं भंते ! किं सासया, असासया ? गोयमा ! सिय सासया, सिय असासया । से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ सिय सासया, सिय असासया ?
गोयमा ! दव्वट्ठयाए सासया, वन्नपज्जवेहिं, गंधपज्जवेहिं, रसपज्जवेहि, फासपज्जवेहिं असासया, से एएणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चति सिय सासया, सिय असासया ।
पउमवरवेइया णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ?
गोयमा ! ण कयावि णासि, ण कयावि णत्थि, ण कयावि न भविस्सइ, भुविं च हवइ य, भविस्सइ य, धुवा णियया सासया अक्खया अव्वया अवट्ठिया णिच्चा पउमवरवेइया।
१५८- हे भदन्त! वह पद्मवरवेदिका शाश्वत है अथवा अशाश्वत है ? हे गौतम! (किसी अपेक्षा) शाश्वत—नित्य भी है और (किसी अपेक्षा) अशाश्वत भी है।
भगवन्! किस कारण आप ऐसा कहते हैं कि (किसी अपेक्षा) वह शाश्वत भी है और (किसी अपेक्षा) अशाश्वत भी है ?
हे गौतम! द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा वह शाश्वत है परन्तु वर्ण, गंध, रस और स्पर्श पर्यायों की अपेक्षा अशाश्वत है। इसी कारण हे गौतम! यह कहा है कि वह पद्मवरवेदिका शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है।
हे भदन्त! काल की अपेक्षा वह पद्मवरवेदिका कितने काल पर्यन्त —कब तक रहेगी?