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वनखंडवर्ती प्रासादवतंसक
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मंडप, नागरबेलमंडप, मृद्वीकामंडप (अंगूर की बेल के मंडप), नागलतामंडप, अतिमुक्तक (माधवीलतामंडप, अप्फोया मंडप और मालुकामंडप बने हुए हैं। ये सभी मंडप अत्यन्त निर्मल, सर्वरत्नमय यावत् प्रतिरूप— अतीव मनोहर हैं।
विवेचनलता और बेलों से बने इन मंडपों में बहुत सी सुगंधित पुष्पों वाली लतायें और बेलें तो प्रसिद्ध हैं, परन्तु कुछ एक नामों के बारे में जानकारी नहीं मिलती है। जैसे दधिवासुका अप्फोया मालुका। लेकिन प्रसंग से ऐसा प्रतीत होता है कि ये सभी लतायें प्रायः सुगंधित पुष्पों वाली होनी चाहिए।
१५०- तेसु णं जातिमंडवएसु जाव मालुयामंडवएसु बहवे पुढविसिलापट्टगा हंसासणसंठिया जाव दिसासोवत्थियासणसंठिया, अण्णे य बहवे वरसयणासणविसिट्ठसंठाणसंठिया पुढविसिलापट्टगा पण्णत्ता समाणाउसो ! आईणग-रूय-बूर-णवणीय-तूलफासा, सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ।
१५०— हे आयुष्मन् श्रमणो! उन जातिमंडपों यावत् मालुकामंडपों में कितने ही हंसासन सदृश आकार वाले यावत् कितने ही क्रौंचासन, कितने ही गरुडासन, कितने ही उन्नतासन, कितने ही प्रणतासन, कितने ही दीर्घासन, कितने ही भद्रासन, कितने ही पक्ष्यासन, कितने ही मकारासन, कितने ही वृषभासन, कितने ही सिंहासन, कितने ही पद्मासन, कितने ही दिशास्वस्तिकासन जैसे आकार वाले पृथ्वीशिलापट्टक तथा दूसरे भी बहुत से श्रेष्ठ शयनासन (शैया, पलंग) सदृश विशिष्ट आकार वाले पृथ्वीशिलापट्टक रखे हुए हैं। ये सभी पृथ्वीशिलापट्टक चर्मनिर्मित वस्त्र अथवा मृगछाला, रुई, बूर, नवनीत, तूल, सेमल या आक की रुई के स्पर्श जैसे सुकोमल, कमनीय, सर्वरत्नमय, निर्मल यावत् अतीव रमणीय हैं।
१५१— तत्थ णं बहवे वेमाणिया देवा य देवीओ य आसयंति, सयंति, चिटुंति, निसीयंति, तुयटुंति, रमंति, ललंति, कीलंति, किट्टंति, मोहेंति, पुरा पोराणाणं सुचिण्णाण सुपरिक्कंताण सुभाण कडाण कम्माण कल्लाणाण कल्लाणं फलविवागं पच्चणुब्भवमाणा विहरति ।
१५१- उन हंसासनों आदि पर बहुत से सूर्याभविमानवासी देव और देवियां सुखपूर्वक बैठते हैं, सोते हैं, शरीर को लम्बा कर लेटते हैं, विश्राम करते हैं, ठहरते हैं, करवट लेते हैं, रमण करते हैं, केलिक्रीड़ा करते हैं, इच्छानुसार भोग-विलास भोगते हैं, मनोविनोद करते हैं, रासलीला करते हैं और रतिक्रीड़ा करते हैं। इस प्रकार वे अपने-अपने सुपुरुषार्थ से पूर्वोपार्जित शुभ, कल्याणमय शुभफलप्रद, मंगलरूप पुण्य कर्मों के कल्याणरूप फलविपाक का अनुभव करते हुए समय बिताते हैं। वनखण्डवर्ती प्रासादावतंसक
१५२ – तेसि णं वणसंडाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं-पत्तेयं पासायवडेंसगा पण्णत्ता, ते णं पासायवडेंसगा पंच जोयणसयाई उई उच्चत्तेणं, अड्डाइज्जाइं जोयणसयाई विक्खंभेणं, अब्भुग्गयमूसियपहसिया इव तहेव बहुसमरमणिज्जभूमिभागो, उल्लोओ, सीहासणं सपरिवारं । तत्थ णं
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पाठान्तर-मांसलसुघट्टविसिट्टसंठाणसंठिया ।