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________________ ७८ राजप्रश्नीयसूत्र सुज्झरययवालुयाओ वेरुलियमणिफालियपडलपच्चोयडाओ, सुहोयारसुउत्तराओ, णाणामणितित्थसुबद्धाओ, चउक्कोणाओ, आणुपुव्वसुजातवप्पगंभीरसीयलजलाओ, संछन्नपत्तभिसमुणालाओ, बहुउप्पलकुमुयनलिणसुभगसोगंधियपोंडरीयसयवत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवचियाओ छप्पयपरिभुज्जमाणकमलाओ, अच्छविमलसलिलपुण्णाओ, पडिहत्थभमंतमच्छकच्छभ-अणेगसउण-मिहुणगणपविचरिताओ । पत्तेयं-पत्तेयं पउमवरवेदियापरिक्खित्ताओ, पत्तेयं-पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ । अप्पेगइयाओ आसवोयगाओ, अप्पेगइयाओ वारुणोयगाओ, अप्पेगइयाओ खीरोयगाओ, अप्पेगइयाओ घओयगाओ, अप्पेगइयाओ खोदोयगाओ' अप्पेगतियाओ पगतीए उयगरसेणं पण्णत्ताओ, पासादीयाओ दरिसण्णिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ । १४३– उन वनखंडों में जहां-तहां स्थान-स्थान पर अनेक छोटी-छोटी चौरस वापिकायें-बावड़ियां, गोल पुष्करिणियां, दीर्घिकायें (सीधी बहती नदियां), गुंजालिकायें (टेड़ी-तिरछी-बांकी बहती नदियां), फूलों से ढकी हुई सरोवरों की पंक्तियां, सर-सर पंक्तियां (पानी के प्रवाह के लिए नहर द्वारा एक दूसरे से जुड़े हुए तालाबों की पंक्तियां) एवं कूपपंक्तियां बनी हुई हैं। इन सभी वापिकाओं आदि का बाहरी भाग स्फटिकमणिवत् अतीव निर्मल, स्निग्ध कमनीय है। इनके तट रजतमय हैं और तटवर्ती भाग अत्यन्त सम-चौरस हैं । ये सभी जलाशय वज्ररत्नमय रूपी पाषाणों से बने हुए हैं। इनके तलभाग तपनीय स्वर्ण से निर्मित हैं तथा उन पर शुद्ध स्वर्ण और चांदी की बालू बिछी है। तटों के समीपवर्ती ऊंचे प्रदेश (मुंडेर) वैडूर्य और स्फटिक मणि-पटलों के बने हैं। इनमें उतरने और निकलने के स्थान सुखकारी हैं। घाटों पर अनेक प्रकार की मणियां जड़ी हुई हैं। चार कोने वाली वापिकाओं और कुओं में अनुक्रम से नीचे-नीचे पानी अगाध एवं शीतल है तथा कमलपत्र, बिस (कमलकंद) और मृणालों से ढका हुआ है। ये सभी जलाशय विकसित खिले हुए उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुंडरीक, शतपत्र तथा सहस्रपत्र कमलों से सुशोभित हैं और उन पर पराग-पान के लिए भ्रमरसमूह गूंज रहे हैं। स्वच्छ-निर्मल जल से भरे हुए हैं। कल्लोल करते हुए मगर-मच्छ कछुआ आदि बेरोक-टोक इधर-उधर घूम फिर रहे हैं और अनेक प्रकार के पक्षिसमूहों के गमनागमन से सदा व्याप्त रहते हैं। ये सभी जलाशय एक-एक पद्मवरवेदिका और एक एक वनखंड से परिवेष्टित—घिरे हुए हैं। इन जलाशयों में से किसी में आसव जैसा, किसी में वारुणोदक (वारुण समुद्र के जल) जैसा, किसी में क्षीरोदक जैसा, किसी में घी जैसा, किसी में इक्षुरस जैसा और किसी-किसी में प्राकृतिक स्वाभाविक पानी जैसा पानी भरा है। ये सभी जलाशय मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। १४४– तासि णं वावीणं जाव बिलपंतीणं पत्तेयं पत्तेयं चउद्दिसिं चत्तारि तिसोपाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तेसि णं तिसोपाणपडिरूवगाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा१. पाठान्तर—अप्पेगइआओ खारोयगाओ ।
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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