________________
वनखंडवर्ती वापिकाओं आदि का वर्णन
७७
भहसालवणगयाणं वा, नंदणवणगयाणं वा, सोमणसवणगयाणं वा, पंडगवणगयाणं वा, हिमवंतमलयमंदर-गिरिगुहासमन्नागयाण वा, एगओ सन्निहियाणं समागयाणं सन्निसन्नाणं समुवविट्ठाणं पमुइयपक्कीलियाणं गीयरइ गंधव्वहसियमणाणं गज्जं पज्जं, कत्थं, गेयं पयबद्धं, पायबद्धं उक्खित्तं पायंतं मंदायं रोइयावसाणं सत्तसरसमन्नागयं छद्दोसविप्पमुक्कं एक्कारसालंकारं अट्ठगुणोववेयं, गुंजाऽवंककुहरोवगूढं रत्तं तिट्ठाणकरणसुद्धं पगीयाणं, भवेयारूवे ?
१४१- भगवन् ! तो क्या उनकी ध्वनि इस प्रकार की है, जैसे कि भद्रशालवन, नन्दनवन, सौमनसवन अथवा पांडुक वन या हिमवन, मलय अथवा मंदरगिरि की गुफायों में गये हुए एवं एक स्थान पर एकत्रित, समागत, बैठे हुए
और अपने-अपने समूह के साथ उपस्थित, हर्षोल्लास पूर्वक क्रीड़ा करने में तत्पर, संगीत-नृत्य-नाटक-हासपरिहासप्रिय किन्नरों, किंपुरुषों, महोरगों अथवा गंधर्वो के गद्यमय-पद्यमय, कथनीय, गेय, पदबद्ध, पादबद्ध, उत्क्षिप्त, पादान्त, मन्द-मन्द घोलनात्मक, रोचितावसान-सुखान्त, मनमोहक सप्त स्वरों से समन्वित, षड्दोषों से रहित, ग्यारह अलंकारों और आठ गुणों से युक्त गुंजारव से दूर-दूर के कोनों क्षेत्रों को व्याप्त करने वाले रागरागिनी से युक्त त्रि-स्थानकरण शुद्ध गीतों के मधुर बोल होते है ?
विवेचन- भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक इन चार देवनिकायों में से किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गंधर्व व्यन्तरनिकाय के देव है। ये सभी प्रशस्त गीत, संगीत, नृत्य एवं नाट्य-कलाओं के प्रेमी होते हैं। बालसुलभ क्रीड़ा और हास-परिहास, कोलाहल करने में इन्हें आनन्दानुभूति होती है। पुष्पों से बनाये हुए मुकुट, कुंडल आदि इनके प्रिय आभूषण हैं। सर्व ऋतुओं के सुन्दर सुगन्धित पुष्पों द्वारा निर्मित वनमालाओं से इनके वक्षस्थल शोभित रहते हैं। ये अनेक प्रकार के चित्र-विचित्र रंग-बिरंगे पंचरंगे परिधान—वस्त्र पहनते हैं। ये सभी प्रायः सुमेरु पर्वत और हिमवंत आदि पर्वतों के रमणीय प्रदेशों में निवास करते हैं।
प्रस्तुत सूत्र में संगीत के स्वर, दोष और गुणों की संख्या का संकेत करने के लिए सत्तसरसमन्नागयं, छद्दोसविप्पमुक्कं, अट्ठगुणोववेयं पद दिये हैं। स्वरों आदि के नाम इस प्रकार हैं
सप्तस्वर- १. षड्ज, २. ऋषभ, ३. गांधार, ४. मध्यम, ५. पंचम, ६. धैवत और ७. निषाद। षड्दोष- १. भीत, २. द्रुत, ३. उप्पित्थ, ४. उत्ताल, ५. काकस्वर, ६. अनुनास। अष्टगुण- १. पूर्ण, २. रक्त, ३. अलंकृत, ४. व्यक्त, ५. अविघुष्ट, ६. मधुर, ७. सम, ८. सुललित। १४२- हंता सिया ।
१४२– हे गौतम! हां, ऐसी ही मधुरातिमधुर ध्वनि उन मणियों और तृणों से निकलती है। वनखंडवर्ती वापिकाओं आदि का वर्णन
१४३ - तेसि णं वणसंडाणं तत्थ-तत्थ तहिं तहिं देसे देसे बहूईओ खुड्डा खुड्डियातो वावीयाओ, पुक्खरिणीओ, दीहियाओ, गुंजालियाओ, सरपंतियाओ, सरसरपंतियाओ, बिलपंतिओ, अच्छाओ सण्हाओ रययामयकूलाओ, समतीराओ वयरामयपासाणाओ तवणिज्जतलाओ, सुवण्ण
१.
पाठान्तर—अट्ठरससंपउत्तं ।।