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राजप्रश्नीयसूत्र हेमवयचित्ततिणिसकणगणिज्जतदारुयायस्स, सुसंपिनद्धचक्कमंडलधुरागस्स, कालायससुकयणेमिजंतकम्मस्स आइण्णवर-तुरगसुसंपउत्तस्स, कुसलणरच्छेयसारहि-सुसंपरिग्गहियस्स, सरसबत्तीसतोणपरिमंडियस्स सकंकडावयंगस्स, सचाव-सर-पहरण-आवरणभरिय-जोधजुझसज्जस्स, रायंगणंसि वा रायंतेउरंसि वा रम्मंसि वा मणिकुट्टिमतलंसि अभिक्खणं अभिक्खणं अभिघट्टिज्जमाणस्स वा नियट्टिज्जमाणस्स वा ओराला मणुण्णा मणोहरा कण्णमणनिव्वुइकरा सद्दा सव्वओ समंता अभिणिस्सवंति ।
भवेयारूवे सिया ? णो इणढे समटे ।
१३९- हे गौतम! जिस तरह शिविका (डोली, पालकी) अथवा स्यन्दमानिका (बहली-सुखपूर्वक एक व्यक्ति के बैठने योग्य घोड़ा जुता यान-विशेष) अथवा रथ, जो छत्र, ध्वजा, घंटा, पताका और उत्तम तोरणों से सुशोभित, वाद्यसमूहवत् शब्द-निनाद करने वाले धुंघरुओं एवं स्वर्णमयी मालाओं से परिवेष्टित हो, हिमालय में उत्पन्न अति निगड़-सारभूत उत्तम तिनिश काष्ठ से निर्मित एवं सुव्यवस्थित रीति से लगाये गये आरों से युक्त पहियों
और धुरा से सुसज्जित हो, सुदृढ़ उत्तम लोहे के पट्टों से सुरक्षित पट्टियों वाले, शुभलक्षणों और गुणों से युक्त कुलीन अश्व जिसमें जुते हों जो रथ-संचालन-विद्या में अति कुशल, दक्ष सारथी द्वारा संचालित हो, एक सौ-एक सौ बाण वाले, बत्तीस तूणीरों (तरकसों) से परिमंडित हो, कवच से आच्छादित अग्र-शिखर-भाग.वाला हो, धनुष बाण, प्रहरण, कवच आदि यद्धोपकरणों से भरा हो और युद्ध के लिए तत्पर सन्नद्ध योधाओं के लिए सजाया गया हो, ऐसा रथ बारम्बार मणियों और रत्नों से बनाये गये—फर्श वाले राजप्रांगणे, अंत:पुर अथवा रमणीय प्रदेश में आवागमन करे तो सभी दिशा-विदिशा में चारों ओर उत्तम, मनोज्ञ, मनोहर, कान और मन को आनन्दकारक मधुर शब्द-ध्वनि फैलती है।
हे भदन्त! क्या इन रथादिकों की ध्वनि जैसी ही उन तृणों और मणियों की ध्वनि है ? गौतम! नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है। (उनकी ध्वनि तो इनसे भी विशेष मधुर है।)
१४०- से जहाणामए वेयालियवीणाए उत्तरमंदामुच्छियाए अंके सुपइट्ठियाए कुसलनरनारिसुसंपरिग्गहियाए चंदणसारनिम्मियकोणपरिघट्टियाए पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंमि मंदाय-मंदायं वेइयाए, पवेइयाए, चलियाए, घट्टियाए, खोभियाए, उदीरियाए ओराला, मणुण्णा, मणहरा, कण्हमणनिव्वुइकरा सदा सव्वओ समंता अभिनिस्सवंति, भवेयारूवे सिया ? णो इणढे समढे ।
१४०– भदन्त! क्या उन मणियों और तृणों की ध्वनि ऐसी है जैसी कि मध्यरात्रि अथवा रात्रि के अन्तिम प्रहर में वादनकुशल नर या नारी द्वारा अंक —गोद में लेकर चंदन के सार भाग से रचित कोण (वीणा बजाने का दण्ड, डांडी) के स्पर्श से उत्तर-मन्द मूर्च्छना वाली (राग-रागिनी के अनुरूप तीव्र-मन्द आरोह-अवरोह ध्वनियुक्त) वैतालिक वीणा को मन्द-मन्द ताड़ित, कंपित, प्रकंपित, चालित, घर्षित क्षुभित और उदीरित किये जाने पर सभी दिशाओं एवं विदिशाओं में चारों ओर उदार, सुन्दर, मनोज्ञ, मनोहर, कर्णप्रिय एवं मनमोहक ध्वनि गूंजती है ?
गौतम! नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है। उन मणियों और तृणों की ध्वनि इससे भी अधिक मधुर है। १४१- से जहानामए किन्नराण वा, किंपुरिसाण वा, महोरगाण वा, गंधव्वाण वा,