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________________ द्वारस्थ ध्वजाओं का वर्णन, द्वारवर्ती भौमों का वर्णन मयूर पिच्छपटलक रखे हैं । ये सब भी पटलक रत्नमय, स्वच्छ — निर्मल यावत् प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो सिंहासन हैं । इन सिंहासनों का वर्णन मुक्तादामपर्यन्त पूर्ववत् कहना चाहिए। उन तोरणों के आगे रजतमय दो-दो छत्र हैं। इन रजतमय छत्रों के दण्ड विमल वैडूर्यमणियों के हैं, कर्णिकायें (बीच का केन्द्र) सोने की हैं, संधियां वज्र की हैं, मोती पिरोई हुई आठ हजार सोने की सलाइयां (तानें ) हैं तथा दद्दर चन्दन और सभी ऋतुओं के पुष्पों की सुरभि से युक्त शीतल कान्ति वाले हैं। इन पर मंगलरूप स्वस्तिक आदि के चित्र बने हैं। इनका आकार चन्द्रमण्डलवत् गोल है। ७३ उन तोरणों के आगे दो-दो चामर हैं। इन चामरों की डंडियां चन्द्रकांत वैडूर्य और वज्ररत्नों की हैं और उन पर अनेक प्रकार के मणि - रत्नों द्वारा विविध चित्र-विचित्र रचनायें बनी हैं, शंख, अंकरत्न, कुंदपुष्प, जलकण और मथित क्षीरोदधि के फेनपुंज सदृश श्वेत-धवल इनके पतले लम्बे बाल हैं। ये सभी चामर सर्वथा रत्नमय, निर्मल यावत् प्रतिरूप अनुपम शोभाशाली हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो तेलसमुद्गक (सुगन्धित तेल से भरे पात्र), कोष्ठ (सुगन्धित द्रव्यविशेष कुटज) समुद्गक, पत्र ( तमाल के पत्ते) समुद्गक, चोयसमुद्गक, तगरसमुद्गक, एला (इलायची) समुद्गक, हरताल - समुद्गक, हिंगलुकसमुद्गक, मैनमिलसमुद्गक, अंजनसमुद्गक रखे हैं। ये सभी समुद्गक रत्नों से बने हुए, निर्मल यावत् अतीव मनोहर हैं । द्वारस्थ ध्वजाओं का वर्णन १३३ – सूरिया णं विमाणे एगमेगे दारे अट्ठसयं चक्कज्झयाणं, अट्ठसयं मिगज्झयाणं, गरुडज्झयाणं, छत्तज्झयाणं, पिच्छज्झयाणं, सउणिज्झयाणं, सीहज्झयाणं, उसभज्झयाणं, अट्ठसयं सेयाणं चविसाणाणं नागवरकेऊणं । एवमेव सपुव्वावरेणं सूरियाभे विमाणे एगमेगे दारे असीयं असीयं केउसहस्सं भवति इति मक्खायं । १३३ – सूर्याभ विमान के प्रत्येक द्वार के ऊपर चक्र, मृग, गरुड़, छत्र, मयूरपिच्छ, पक्षी, सिंह, वृषभ, चार दांत वाले श्वेत हाथी और उत्तम नाग (सर्प) के चित्र (चिह्न) से अंकित एक सौ आठ एक आठ ध्वजायें फहरा रही हैं। इस तरह सब मिलाकर एक हजार अस्सी- एक हजार अस्सी ध्वजायें उस सूर्याभ विमान के प्रत्येक द्वार पर फहरा रही हैं—ऐसा तीर्थंकर भगवन्तों ने कहा है । द्वारवर्ती भौमों (विशिष्ट स्थानों) का वर्णन १३४ – तेसि णं दाराणं एगमेगे दारे पण्णट्ठि पण्णट्ठि भोमा पन्नत्ता । तेसि णं भोमाणं भूमिभागा, उल्लोया च भाणियव्वा । तेसि णं भोमाणं च बहुमज्झदेसभागे पत्तेयं पत्तेयं सीहासणे, सीहासणवन्नओ सपरिवारो, अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं - पत्तेयं भासणा पन्नत्ता । १३४— उन द्वारों के एक-एक द्वार पर पैंसठ-पैंसठ भौम (विशिष्ट स्थान — उपरिगृह) बताये हैं । यान विमान की तरह ही इन भौमों के समरमणीय भूमिभाग और उल्लोक (चन्देवों) का वर्णन करना चाहिए। इन भौमों के बीचों-बीच एक-एक सिंहासन रखा है। यानविमानवर्ती सिंहासन की तरह उसका सपरिवार
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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