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________________ राजप्रश्नीयसूत्र वनलतायें मन को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप हैं। १३०– तेसि णं दाराणं उभओ पासे दुहओ णिसीहियाए सोलस-सोलस पगंठगा पन्नत्ता । ते णं पगंठगा अड्डाइज्जाइं जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं, पणवीसं जोयणसयं बाहल्लेणं, सव्ववयरामया अच्छा जाव' पडिरूवा । १३०–इन द्वारों की उभय पार्श्ववर्ती दोनों निषीधिकाओं में सोलह-सोलह प्रकंठक (वेदिका रूप पीठविशेष, चबूतरा) हैं। ___ये प्रत्येक प्रकंठक अढ़ाई सौ योजन लम्बे, अढ़ाई सौ योजन चौड़े और सवा सौ योजन मोटे हैं तथा सर्वात्मना रत्नों से बने हुए निर्मल यावत् अतीव रमणीय हैं। १३१- तेसि णं पगंठगाणं उवरि पत्तेयं पत्तेयं पासायवडेंसगा पन्नत्ता । ते णं पासायवडेंसगा अड्डाइज्जाइं जोयणसयाइं उ8 उच्चत्तेणं, पणवीसं जोयणसयं विक्खंभेणं, अब्भुग्गयमूसिअपहसिया विव, विविहमणिरयणभत्तिचित्ता, वाउ यविजय-वेजयंतपडागच्छत्ताइच्छत्तकलिया, तुंगा, गगणतलमणुलिहंतसिहरा, जालंतररयणपंजरुम्मिलिय व्व, मणिकणगथूभियागा, वियसियसयवत्तपोंडरीयतिलगरयणद्धचंदचित्ता, णाणामणिदामालंकिया अंतो बहिं च सण्हा तवणिज्जवालुयापत्थडा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासादीया दरिसणिज्जा जाव दामा । १३१- उन प्रकण्ठकों के ऊपर एक-एक प्रासादावतंसक (श्रेष्ठमहल-विशेष) है। ये प्रासादावंतसक ऊंचाई में अढ़ाई सौ योजन ऊंचे और सवा सौ योजन चौड़े हैं, चारों दिशाओं में व्याप्त अपनी प्रभा से हंसते हुए से प्रतीत होते हैं। विविध प्रकार के मणि-रत्नों से इनमें चित्र-विचित्र रचनायें बनी हुई हैं। वायु से फहराती हुई, विजय को सूचित करने वाली वैजयन्तीपताकाओं एवं छत्रातिछत्रों (एक दूसरे के ऊपर रहे हुए छत्रों) से अलंकृत हैं, अत्यन्त ऊंचे होने से इनके शिखर मानो आकाशतल का उल्लंघन करते हैं। विशिष्ट शोभा के लिए जाली-झरोखों में रत्न जुड़े हुए हैं। वे रत्न ऐसे चमकते हैं मानों तत्काल पिटारों से निकाले हुए हों। मणियों और स्वर्ण से इनकी स्तूपिकायें निर्मित (शिखर) हैं तथा स्थान-स्थान पर विकसित शतपत्र एवं पुंडरीक कमलों के चित्र और तिलकरत्नों से रचित अर्धचन्द्र बने हुए हैं। वे नाना प्रकार की मणिमय मालाओं से अलंकृत हैं। भीतर और बाहर से चिकने—कमनीय हैं। प्रांगणों में स्वर्णमयी बालुका बिछी हुई है, इनका स्पर्श सुखप्रद है। रूप शोभासम्पन्न है। देखते ही चित्त में प्रसन्नता होती है, वे दर्शनीय हैं। यावत् मुक्तादामों आदि से सुशोभित हैं। विवेचन— 'जाव दामा' पद से यह सूचित किया है कि यानविमान के प्रसंग में जिस तरह उसकी अन्तर्भूमि, प्रेक्षागृह मंडप, रंगमंच, सिंहासन, विजय, दूष्य, वज्रांकुश एवं मुक्तादामों का वर्णन किया है, उसी प्रकार समस्त वर्णन यहां भी समझ लेना चाहिए। संक्षेप में उक्त वर्णन का सारांश इस प्रकार है इन प्रासादावतंसकों का अन्तर्वर्ती भूभाग आलिंगपुष्कर, मृदंगपुष्कर, सूर्यमंडल, चन्द्रमंडल अथवा कीलों को ठोक और चारों ओर से खींचकर सम किये गये भेड़, बैल, सुअर, सिंह आदि के चमड़े के समान अतीव सम, १. देखें सूत्र संख्या ११८
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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