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राजप्रश्नीयसूत्र है, सूर्य किरणों की तरह अपनी द्युति—कान्ति से सदैव चमचमाता रहता है। असंख्यात कोडाकोडि योजन प्रमाण उसकी लम्बाई-चौडाई तथा असंख्यात कोटाकोटि योजन प्रमाण उसकी परिधि है।। ___उस सौधर्मकल्प में सौधर्मकल्पवासी देवों के बत्तीस लाख विमान बताये हैं। वे सभी विमानावास सर्वात्मना रत्नों से बने हुए स्फटिक मणिवत् स्वच्छ यावत् (सलौने, अत्यन्त चिकने, घिसे हुए, मंजे हुए, नीरज, निर्मल, निष्कलंक, निरावरण, दीप्ति, कान्ति, तेज और उद्योत—प्रकाशयुक्त, मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, मनोहर एवं) अतीव मनोहर हैं।
उन विमानों के मध्यातिमध्य भाग में ठीक बीचोंबीच–पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन चार दिशाओं में अनुक्रम से अशोक-अवतंसक, सप्तपर्ण-अवतंसक, चंपक-अवतंसक, आम्र-अवतंसक तथा मध्य में सौधर्मअवतंसक, ये पांच अवतंसक (मुख्य श्रेष्ठ भवन) हैं। ये पांचों अवतंसक भी रत्नों से निर्मित, निर्मल यावत् प्रतिरूप—अतीव मनोहर हैं।
उस सौधर्म-अवतंसक महाविमान की पूर्व दिशा में तिरछे असंख्यात लाख योजन प्रमाण आगे जाने पर आगत स्थान में सूर्याभदेव का सूर्याभ नामक विमान है। उसका आयाम-विष्कंभ (लम्बाई-चौड़ाई) साढ़े बारह लाख योजन और परिधि उनतालीस लाख बावन हजार आठ सौ अड़तालीस योजन है।
११९- से णं एगेणं पागारेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते । से णं पागारे तिण्णि जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, मूले एगं जोयणसयं विक्खंभेणं, मज्झे पन्नासं जोयणाई विक्खंभेणं, उप्पिं पणवीसं जोयणाइं विक्खंभेणं । मूले वित्थिण्णे, मझे संखित्ते उप्पिं तणुए, गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे ।
११९- वह सूर्याभ विमान चारों दिशाओं में सभी ओर से एक प्राकार—परकोटे से घिरा हुआ है। यह प्राकार तीन सौ योजन ऊंचा है, मूल में इस प्राकार का विष्कम्भ (चौड़ाई) एक सौ योजन, मध्य में पचास योजन
और ऊपर पच्चीस योजन है। इस तरह यह प्राकार मूल में चौड़ा, मध्य में संकड़ा और सबसे ऊपर अल्प पतला होने से गोपुच्छ के आकार जैसा है। यह प्राकार सर्वात्मना रत्नों से बना होने से रत्नमय है, स्फटिकमणि के समान निर्मल है यावत् प्रतिरूप-अतिशय मनोहर है।
१२०- से णं पागारे णाणाविहपंचवण्णेहिं कविसीसएहिं उपसोभिते, तं जहा कण्हेहि य नीलेहि य लोहितेहिं हालिद्देहिं सुक्किल्लेहिं कविसीसएहिं । ते णं कविसीसगा एगं जोयणं आयामेणं, अद्धजोयणं विक्खंभेणं, देसूणं जोयणं उठें उच्चत्तेणं सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा । ___ १२०- वह प्राकार अनेक प्रकार के कृष्ण, नील, लोहित—लाल, हारिद्र—पीले और श्वेत इन पांच वर्णों वाले कपिशीर्षकों (कंगूरों) से शोभित है।
ये प्रत्येक कपिशीर्षक (कंगूरे) एक-एक योजन लम्बे, आधे योजन चौड़े और कुछ कम एक योजन ऊंचे हैं तथा ये सब रत्नों से बने हुए, निर्मल यावत् बहुत रमणीय हैं।