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________________ तप का विवेचन ५३ पृथक् रखी हुई भोजन-सामग्री में से भिक्षा लेने की प्रतिज्ञा स्वीकार करना अथवा दाता द्वारा पहले किसी अपेक्षा से अवगुण तथा बाद में किसी अपेक्षा से गुण कथन के साथ दी जाने वाली भिक्षा स्वीकार करने की प्रतिज्ञा लेना, १५. संसृष्ट-चर्या–लिप्त हाथ आदि से दी जाने वाली भिक्षा लेने की प्रतिज्ञा रखना, १६. असंसृष्ट-चर्या अलिप्त या स्वच्छ हाथ आदि से दी जाने वाली भिक्षा स्वीकार करने की प्रतिज्ञा रखना, १७. तज्जातसंसृष्ट-चर्या दिये जाने वाले पदार्थ से संभृत—लिप्त हाथ आदि से दिया जाता आहार स्वीकार करने की प्रतिज्ञा रखना, १८. अज्ञात-चर्याअपने को अज्ञात-अपरिचित रखकर निरवध भिक्षा ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करना, १९. मौन-चर्या स्वयं मौन रहते हुए भिक्षा ग्रहण करने की प्रतिज्ञा लेना, २०. दृष्ट-लाभ दिखाई देता या देखा हुआ आहार लेने की प्रतिज्ञा स्वीकार करना अथवा पूर्व काल में देखे हुए दाता के हाथ से भिक्षा ग्रहण करने की प्रतिज्ञा स्वीकार करना, २१. अदृष्टलाभ—पहले नहीं देखा हुआ आहार अथवा पूर्व काल में नहीं देखे हुए दाता द्वारा दिया जाता आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा लेना, २२. पृष्ट-लाभ–पूछकर—भिक्षो! आपको क्या दें, यों पूछकर दिया जाने वाला आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा लेना, २३. अपृष्ट-लाभ–यों पूछे बिना दिया जाने वाला आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा स्वीकार करना, २४. भिक्षा-लाभ भिक्षा के सदृश भिक्षा मांगकर लाये हुए जैसा तुच्छ आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा स्वीकार करना, अथवा दाता जो भिक्षा में या मांगकर लाया हो, उसमें से या उस द्वारा तैयार किये हुए भोजन में से आहार लेने की प्रतिज्ञा स्वीकार करना, २५. अभिक्षा-लाभ भिक्षा-लाभ से विपरीत आहार लेने की प्रतिज्ञा लिए रहना. २६. अन्नग्लायक रात का ठंडा, बासी आहार लेने की प्रतिज्ञा रखना, २७. उपनिहित-भोजन करते हुए गृहस्थ के निकट रखे हुए आहार में से भिक्षा लेने की प्रतिज्ञा करना, २८. परिमितपिण्डपातिक—परिमित या सीमित—अल्प आहार लेने की प्रतिज्ञा करना, २९. शुद्धैषणिक शंका आदि दोष वर्जित अथवा व्यञ्जन आदि रहित शुद्ध आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा स्वीकार करना तथा ३०. संख्यादत्तिक—पात्र में आहार-क्षेपण की सांख्यिक मर्यादा के अनुकूल भिक्षा लेने की प्रतिज्ञा करना अथवा कड़छी, कटोरी आदि पात्र में डाली जाती भिक्षा की अविच्छिन्न धारा की मर्यादा के अनुसार भिक्षा स्वीकार करने की प्रतिज्ञा लेना। यह भिक्षाचर्या का विस्तार है। भगवान् महावीर के श्रमण यों विविध रूप में बाह्य तप के अनुष्ठान में संलग्न थे। रसपरित्याग क्या है—वह कितने प्रकार का है ? रस-परित्याग अनेक प्रकार का बतलाया गया है, जैसे१. निर्विकृतिक–घृत, तैल, दूध, दही तथा गुड़-शक्कर (चीनी) से रहित आहार करना, २. प्रणीतरसपरित्यागजिससे घृत, दूध, चासनी आदि की बूंदें टपकती हों, ऐसे आहार का त्याग करना, ३. आयंबिल (आचामाम्ल) रोटी आदि एक ही रूखा-सूखा पदार्थ या भूना हुआ अन्न अचित्त पानी में भिगोकर दिन में एक ही बार खाना, ४. आयामसिक्थभोजी–ओसामन तथा उसमें स्थित अन्न-कण, सीथ मात्र का आहार करना, ५. अरसाहार—रसरहित अथवा हींग, जीरा आदि से बिना छोंका हुआ आहार करना, ६. विरसाहार—बहुत पुराने अन्न से, जो स्वभावतः रस या स्वाद रहित हो गया हो, बना हुआ आहार करना, ७. अन्ताहार—अत्यन्त हलकी किस्म (जाति) के अन्न से बना प्रान्ताहार—बहुत हलकी किस्म के अन्न से बना हुआ तथा भोजन कर लेने के बाद बचाखुचा आहार लेना, ९. रूक्षाहार रूखा-सूखा आहार करना। यह रस-परित्याग का विश्लेषण है।
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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