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________________ गुणसम्पन्न अनगार ४३ जिन-प्रवचन के धारक, अक्षरों के सभी प्रकार के संयोग के जानकार, सब भाषाओं के अनुगामी ज्ञाता थे। वे जिन सर्वज्ञ न होते हुए भी सर्वज्ञ सदृश थे। वे सर्वज्ञों की तरह अवितथ यथार्थ, वास्तविक या सत्य प्ररूपणा करते हुए, संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। गुणसम्पन्न अनगार २७- तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे अणगारा भगवंतो इरियासमिया, भासासमिया, एसणासमिया, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिया, उच्चार-पासवणखेल-सिंघाण-जल्ल-पारिट्ठावणियासमिया, मणगुत्ता, वयगुत्ता, कायगुत्ता, गुत्ता, गुत्तिंदिया, गुत्तबंभयारी, अममा, अकिंचणा, छिण्णग्गंथा', छिण्णसोया, निरुवलेवा, कंसपाईव मुक्कतोया, संख इव निरंगणा, जीवो विव अप्पडिहयगई, जच्चकणगं पिव जायरूवा, आदरिसफलगा इव पागडभावा, कुम्मो इव गुत्तिंदिया, पुक्खरपत्तं व निरुवलेवा, गगणमिव निरालंबणा, अणिलो इव निरालया, चंदो एव सोमलेसा, सूरो इव दित्ततेया, सागरो इव गंभीरा, विहग इव सव्वओ विप्पमुक्का, मंदरो इव अप्पकंपा, सारयसलिलं इव सुद्धहियया, खग्गिविसाणं इव एगजाया, भारंडपक्खी व अप्पमत्ता, कुंजरो इव सोंडीरा, वसभी इव जायत्थामा, सीहो इव दुद्धरिसा, वसुंधरा इव सव्वफासविसहा, सुहृय हुयासणो इव तेयसा जलंता। २७– उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी बहुत से अनगार भगवान् साधु थे। वे ईर्या-गमन, हलन-चलन आदि क्रिया, भाषा, आहार आदि की गवेषणा, याचना, पात्र आदि के उठाने, इधर-उधर रखने आदि तथा मल, मूत्र, खंखार, नाक आदि मैल त्यागने में समित–सम्यक् प्रवृत्त यतनाशील थे। वे मनोगुप्त, वचोगुप्त, कायगुप्त—मन, वचन तथा शरीर की क्रियाओं का गोपायन-संयम करने वाले, गुप्त शब्द आदि विषयों में रागरहित-अन्तर्मुख, गुप्तेन्द्रिय-इन्द्रियों को उनके विषय-व्यापार में लगाने की उत्सुकता से रहित, गुप्त ब्रह्मचारी नियमोपनियमपूर्वक ब्रह्मचर्य का संरक्षण—परिपालन करने वाले, अममममत्वरहित, अकिञ्चनपरिग्रहरहित, छिन्नग्रन्थ संसार से जोड़ने वाले पदार्थों से विमुख, छिन्नस्रोत–लोकप्रवाह में नहीं बहने वाले, निरुपलेप-कर्मबन्ध के लेप से रहित, कांसे के पात्र में जैसे पानी नहीं लगता, उसी प्रकार स्नेह, आसक्ति आदि के लगाव से रहित, शंख के समान निरंगण राग आदि की रञ्जनात्मकता से शून्य शंख जैसे सम्मुखीन रंग से अप्रभावित त रहता है. उसी प्रकार सम्मखीन क्रोध. द्वेष.राग.प्रेम: प्रशंसा.निन्दा आदि से अप्रभावित. जीव के समान अप्रतिहत प्रतिघात या निरोधरहित गतियुक्त, जात्य-उत्तम जाति के, विशोधित अन्य कुधातुओं से अमिश्रित शुद्ध स्वर्ण के समान जातरूप प्राप्त निर्मल चारित्र्य में उत्कृष्ट भाव से स्थित—निर्दोष चारित्र्य के प्रतिपालक, दर्पणपट्ट के सदृश–प्रकटभाव—प्रवंचना, छलना व कपटरहित शुद्ध भावयुक्त, कछुए की तरह गुतेन्द्रिय-इन्द्रियों को विषयों से खींच कर निवृत्ति-भाव में संस्थित रखने वाले, कमलपत्र के समान निर्लेप, आकाश के सदृश निरालम्ब निरपेक्ष, वायु की तरह निरालय-गृहरहित, चन्द्रमा के समान सौम्य लेश्यायुक्त सौम्य, सुकोमलभाव-संवलित, सूर्य के समान दीप्ततेज—दैहिक तथा आत्मिक तेजयुक्त, समुद्र के समान गम्भीर, पक्षी की तरह • १. टीका के अनुसार 'अगंथा' पाठ है, जिसका अर्थ है-अपरिग्रह।
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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