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________________ औपपातिकसूत्र उवट्ठाणसाला, जेणेव कूणिए राया भंभसारपुत्ते, तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावित्ता एवं वयासी ___ १७– प्रवृत्ति-निवेदक को जब यह (भगवान् महावीर के पदार्पण की) बात मालूम हुई, वह हर्षित एवं परितुष्ट हुआ। उसने अपने मन में आनन्द तथा प्रीति—प्रसन्नता का अनुभव किया। सौम्य मनोभाव व हर्षातिरेक से उसका हृदय खिल उठा। उसने स्नान किया, नित्यनैमित्तिक कृत्य किये, कौतुक—देहसज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन आंजा, ललाट पर तिलक लगाया, प्रायश्चित्त दुःस्वप्नादि दोषनिवारण हेतु चन्दन, कुंकुम, दही, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया, शुद्ध, प्रवेश्य राजसभा में प्रवेशोचित—उत्तम वस्त्र भलीभाँति पहने, थोड़े से संख्या में कम पर बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। यों (सजकर) वह अपने घर से निकला। (घर से) निकलकर वह चम्पा नगरी के बीच जहाँ राजा कूणिक का महल था, जहाँ बहिर्वर्ती राजसभा-भवन था, जहाँ भंभसार का पुत्र राजा कूणिक था, वहाँ आया। (वहाँ) आकर उसने हाथ जोड़ते हुए, उन्हें सिर के चारों ओर घुमाते हुए, अंजलि बांधे "आपकी जय हो, विजय हो" इन शब्दों में वर्धापित किया। तत्पश्चात् इस प्रकार बोला १८- जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं कंखंति, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं पीहंति, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं पत्थंति, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं अभिलसंति, जस्स णं देवाणुप्पिया णामगोयस्स वि सवणयाए हट्टतुट्ठ जाव (चित्तमाणंदिया, पीइमणा, परम-सोमणस्सिया) हरिसवसविसप्पमाणहियया भवंति, से णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे, गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे चंपाए णयरीए उवणगरग्गामं उवागए, चंपं णगरि पुण्णभदं चेइयं समोसरिउकामे। तं एवं देवाणुप्पियाणं पियट्ठयाए पियं णिवेदेमि, पियं ते भवउ। १८- देवानुप्रिय (सौम्यचेता राजन्) ! जिनके दर्शन की आप कांक्षा करते हैं—प्राप्त होने पर छोड़ना नहीं चाहते, स्पृहा करते हैं—दर्शन न हुए हों तो करने की इच्छा लिये रहते हैं, प्रार्थना करते हैं दर्शन हों, सुहृज्जनों से वैसे उपाय जानने की अपेक्षा रखते हैं, अभिलाषा करते हैं जिनके दर्शन हेतु अभिमुख होने की कामना करते हैं, जिनके नाम (महावीर, ज्ञातपुत्र, सन्मति आदि) तथा गोत्र (कश्यप) के श्रवणमात्र से हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं, मन में आनन्द तथा प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, सौम्य मनोभाव व हर्षातिरेक से हृदय खिल उठता है, वे श्रमण भगवान् महावीर अनुक्रम से विहार करते हुए, एक गांव से दूसरे गांव होते हुए चम्पा नगरी के उपनगर में पधारे हैं। अब पूर्णभद्र चैत्य में पधारेंगे। देवानुप्रिय! आपके प्रीत्यर्थ—प्रसन्नता हेतु यह प्रिय समाचार मैं आपको निवेदित कर रहा हूँ। यह आपके लिए प्रियकर हो। १९- तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते तस्स पवित्तिवाउयस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ठ जाव' हियए, वियसियवरकमलणयणवयणे, पयलियवरकडग-तुडिय-केऊर-मउडकुंडल-हार-विरायंतरइयवच्छे, पालंबपलबमाणघोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरियं चवलं नरिंदे सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुट्टित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता, पाउयाओ ओमुयइ, ओमुइत्ता अवहट्ट पंच रायक-कुहाइं, तं जहा—१. खग्गं, २. छत्तं, ३. उप्फेसं, ४. वाहणाओ, ५. वालवीयणं, १. देखें सूत्र संख्या १८
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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