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अशोक-वृक्ष एवं मधुर स्वरालाप से वह गुंजित था, सुरम्य प्रतीत होता था। वहाँ स्थित मदमाते भ्रमरों तथा भ्रमरियों या मधुमक्खियों के समूह एवं पुष्परस—मकरन्द के लोभ से अन्यान्य स्थानों से आये हुए विविध जाति के भंवरे मस्ती से गुनगुना रहे थे, जिससे वह स्थान गुंजायमान हो रहा था।
वह वृक्ष भीतर से फूलों और फलों से आपूर्ण था तथा बाहर से पत्तों से ढंका था। यों वह पत्तों और फलों से सर्वथा लदा था। उसके फल स्वादिष्ट, नीरोग तथा निष्कण्टक थे। वह तरह-तरह के फूलों के गुच्छों, लता-कुंजों तथा मण्डपों द्वारा रमणीय प्रतीत होता था, शोभित होता था। वहां भिन्न-भिन्न प्रकार की सुन्दर ध्वजाएँ फहराती थीं। चौकोर, गोल तथा लम्बी बावड़ियों में जाली-झरोखेदार सुन्दर भवन बने थे। दूर-दूर तक जाने वाली सुगन्ध के संचितपरमाणुओं के कारण वह वृक्ष अपनी सुन्दर महक से मन को हर लेता था, अत्यन्त तृप्तिकारक विपुल सुगन्ध छोड़ता था। वहाँ नानाविध अनेकानेक पुष्पगुच्छ लता-कुंज, मण्डप, गृह—विश्रामस्थान तथा सुन्दर मार्ग व अनेक ध्वजाएँ विद्यमान थीं। अति विशाल होने से उसके नीचे अनेक रथों, यानों, डोलियों और पालखियों के ठहराने के लिए पर्याप्त स्थान था। ___इस प्रकार वह अशोक वृक्ष रमणीय, सुखप्रद–चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय—देखने योग्य, अभिरूप—मन को अपने में रमा लेने वाला तथा प्रतिरूप—मन में बस जाने वाला था।
६-से णं असोगवरपायवे अण्णेहिं बहूहिं तिलएहिं, लउएहि, छत्तोवेहिं, सिरीसेहिं, सत्तवण्णेहिं, दहिवण्णेहिं, लोद्धेहि, धवेहि, चंदणेहिं, अज्जुणेहिं, णीवेहिं, कुडएहिं, कलंबेहि, सव्वेहिं, फणसेहिं, दालिमेहिं, सालेहि, तालेहि, तमालेहिं, पियएहिं, पियंगूहि, पुरोवगेहिं, रायरुक्खेहिं, णंदिरुक्खेहिं, सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते ।
६- वह उत्तम अशोक वृक्ष तिलक, लकुच, क्षत्रोप, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, अर्जुन, नीप, कुटज, कदम्ब, सव्य, पनस, दाडिम, शाल, ताल, तमाल, प्रियक, प्रियंगु, पुरोपग, राजवृक्ष, नन्दिवृक्ष—इन अनेक अन्य पादपों से सब ओर से घिरा हुआ था।
७- ते णं तिलया लउया जाव (छत्तोवेया, सिरीसा, सत्तवण्णा, दहिवण्णा, लोद्धा, धवा, चंदणा, अज्जुणा, णीवा, कुडया, कलंबा, सव्वा, फणसा, दालिमा, साला, ताला, तमाला, पियया, पियंगुया, पुरोवगा, रायरुक्खा,) णंदिरुक्खा, कुसविकुसविसुद्धक्खमूला, मूलमंतो, कंदमंतो, एएसिं वण्णओ भाणियव्वो जाव' सिवियपरिमोयणा, सुरम्मा, पासादीया, दरिसणिजा, अभिरूवा पडिरूवा।
७- उन तिलक, लकुच, (क्षत्रोप, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, अर्जुन, नीप, कुटज, कदम्ब, सव्य, पनस, दाडिम, शाल, ताल, तमाल, प्रियक, प्रियंगु, पुरोपग, राजवृक्ष,) नन्दिवृक्ष' इन सभी पादपों की जड़ें डाभ तथा दूसरे प्रकार के तृणों से विशुद्ध-रहित थीं। उनके मूल, कन्द आदि दशों अंग उत्तम कोटि के थे। ___यों वे वृक्ष रमणीय, मनोरम, दर्शनीय, अभिरूप—मन को अपने में रमा लेने वाले तथा प्रतिरूप—मन में बस जाने वाले थे। उनका वर्णन अशोकवृक्ष के समान जान लेना चाहिए।
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देखें सूत्र संख्या ५