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अशोक - वृक्ष
अभिरूवा, पडिरूवा ।
४— उस वन-खण्ड के वृक्ष उत्तम - मूल जड़ों के ऊपरी भाग, कन्द-भीतरी भाग, जहाँ से जड़ें फूटती हैं, स्कन्ध-तने, छाल, शाखा, प्रवाल- अंकुरित होते पत्ते, पत्र, पुष्प, फल तथा बीज से सम्पन्न थे । वे क्रमशः आनुपातिक रूप में सुन्दर तथा गोलाकार विकसित थे । उनके एक-एक अविभक्त तना तथा अनेक शाखाएँ थीं । उनके मध्य भाग अनेक शाखाओं और प्रशाखाओं का विस्तार लिये हुए थे। उनके सघन, विस्तृत तथा सुघड़ अनेक मनुष्यों द्वारा फैलाई गई भुजाओं से भी गृहीत नहीं किये जा सकते थे—घेरे नहीं जा सकते थे। उनके पत्ते छेदरहित, अविरल ने एक दूसरे से मिले हुए, अधोमुख नीचे की ओर लटकते हुए तथा उपद्रव - रहित नीरोग थे। उनके पुराने, पीले पत्ते झड़ गये थे। नये, हरे, चमकीले पत्तों की सघनता से वहाँ अंधेरा तथा गम्भीरता दिखाई देती थी।
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नवीन, परिपुष्ट पत्तों, कोमल उज्ज्वल तथा हिलते हुए किसलयों— पूरी तरह नहीं पके हुए पत्तों, प्रवालों ताम्रवर्ण के नये निकलते पत्तों से उनके उच्च शिखर सुशोभित थे ।
में कई वृक्ष ऐसे थे, जो सब ऋतुओं में फूलों, मंजरियों, पत्तों, फूलों के गुच्छों, गुल्मों — लताकुंजों तथा पत्तों गुच्छों से युक्त रहते थे। कई ऐसे थे, जो सदा समश्रेणिक रूप में एक कतार में स्थित थे। कई ऐसे थे, जो सदा युगल रूप में दो-दो की जोड़ी के रूप में विद्यमान थे। कई ऐसे थे, जो पुष्प, फल आदि के भार से नित्य विनमित-बहुत झुके हुए थे, प्रणमित विशेष रूप से अभिनतनमे हुए थे ।
विविध प्रकार की अपनी-अपनी विशेषताएँ लिये हुए वे वृक्ष अपनी सुन्दर लुम्बियों तथा मंजरियों के रूप में मानो शिरोभूषण — कलंगियाँ धारण किये रहते थे । तोते, मोर, मैना, कोयल, को भगक, भिंगारक, कोण्डलक, चकोर, नन्दिमुख, तीतर, बटेर, बतख, चक्रवाक, कलहंस, सारस प्रभृति पक्षियों द्वारा की जाती आवाज के उन्नत एवं मधुर स्वरालाप से वे वृक्ष गुंजित थे, सुरम्य प्रतीत होते थे । वहाँ स्थित मदमाते भ्रमरों तथा भ्रमरियों या मधुमक्खियों के समूह एवं पुष्परस मकरन्द के लोभ से अन्यान्य स्थानों से आये हुए विविध जाति के भंवर मस्ती गुनगुना रहे थे, जिससे वह स्थान गुंजायमान हो रहा था ।
वृक्ष भीतर से फूलों और फलों से अपूर्ण तथा बाहर से पत्तों से ढके थे । वे पत्तों और फूलों से सर्वथा लदे थे। उनके फल स्वादिष्ट, नीरोग तथा निष्कण्टक थे । वे तरह-तरह के फूलों के गुच्छों, लता-कुंजों तथा मण्डपों द्वारा रमणीय प्रतीत होते थे, शोभित होते थे । वहाँ भिन्न-भिन्न प्रकार की सुन्दर ध्वजाएँ फहराती थीं । चौकोर, गोल तथा लम्बी बावड़ियों में जाली - झरोखेदार सुन्दर भवन बने थे। दूर-दूर तक जाने वाली सुगन्ध के संचित परमाणुओं के कारण वे वृक्ष अपनी सुन्दर महक से मन को हर लेते थे, अत्यन्त तृप्तिकारक विपुल सुगन्ध छोड़ते थे । वहाँ नानाविध, अनेकानेक पुष्पगुच्छ, लताकुंज, मण्डप, विश्राम स्थान, सुन्दर मार्ग थे, झण्डे लगे थे । वे वृक्ष अनेक रथों, वाहनों, डोलियों तथा पालखियों के ठहराने के लिए उपयुक्त विस्तीर्ण थे।
इस प्रकार के वृक्ष रमणीय, मनोरम, दर्शनीय, अभिरूप मन को अपने में रमा लेने वाले तथा प्रतिरूपमन में बस जाने वाले थे ।
अशोक - वृक्ष
५- तस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एक्के असोगवरपायवे पण्णत्ते कुस