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आज इसी आसन पर बैठे-बैठे इसे नीरज-निर्मल धर्म-चक्षु उत्पन्न हो जाता।३८ देवदत्त के प्रसंग को लेकर बुद्ध ने कहा भिक्षुओ! मगधराज अजातशत्रु, जो भी पापी हैं, उनके मित्र हैं। उनसे प्रेम करते हैं और उनसे संसर्ग रखते हैं ।३९ ।
जातकअट्ठकथा के अनुसार तथागत बुद्ध एक बार बिम्बिसार को धर्मोपदेश कर रहे थे। बालक अजातशत्रु को बिम्बिसार ने गोद में बिठा रखा था और वह क्रीड़ा कर रहा था। बिम्बिसार का ध्यान तथागत बुद्ध के उपदेश में न लगकर अजातशत्रु की ओर लगा हुआ था, इसलिए बुद्ध ने उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए एक कथा कही, जिसका रहस्य था कि तुम इसके मोह में मुग्ध हो पर यही अजातशत्र बालक तुम्हारा घातक होगा।
अवदानशतक के अनुसार बिम्बिसार ने बुद्ध की वर्तमान अवस्था में ही बुद्ध के नख और केशों पर एक स्तूप अपने राजमहल में बनवाया था। राजरानियां धूप-दीप और पुष्पों से उसकी अर्चना करती थीं। जब अजातशत्रु राजसिंहासन पर आसीन हुआ, उसने सारी अर्चना बन्द करवा दी। श्रीमती नामक एक महिला ने उसकी आज्ञा की अवहेलना कर पूजा की, जिस कारण उसे मृत्युदण्ड दिया गया।
बौद्ध साहित्य के जाने माने विद्वान राइस डेविड्स लिखते हैं वार्तालाप के अन्त में अजातशत्रु ने बुद्ध को स्पष्ट रूप से अपना मार्गदर्शक स्वीकार किया और पितृ-हत्या का पश्चात्ताप भी व्यक्त किया। पर यह असंदिग्ध है कि उसने धर्मपरिवर्तन नहीं किया। इस सम्बन्ध में एक भी प्रमाण नहीं है। इस हृदयस्पर्शी प्रसंग के बाद वह तथागत बुद्ध की मान्यताओं का अनुसरण करता रहा हो, यह संभव नहीं है। जहाँ तक मैं जान पाया है, उसके पश्चात् उसने बुद्ध के अथवा बौद्ध संघ के अन्य किसी भी भिक्षु के न कभी दर्शन किये और न उनके साथ धर्मचर्यायें की और न उसने बुद्ध के जीवन-काल में भिक्षुसंघ को कभी आर्थिक सहयोग भी किया। इतना तो अवश्य मिलता है कि बुद्ध निर्वाण के बाद उसने बुद्ध की अस्थियों की मांग की पर वह भी यह कह कर कि मैं भी बुद्ध की तरह क्षत्रिय हूँ। और उन अस्थियों पर बाद में एक स्तूप बनवाया। दूसरी बात उत्तरवर्ती ग्रन्थों में यह भी मिलती है कि बुद्ध-निर्वाण के पश्चात् राजगृह में प्रथम संगति हुई, तब अजातशत्रु ने सप्तपर्णी गुफा के द्वार पर एक सभाभवन बनवाया था, जहाँ बौद्धपिटकों का संकलन हुआ। परन्तु इस बात का बौद्धधर्म के प्राचीनतम और मौलिक ग्रन्थों में किंचिन्मात्र भी न तो उल्लेख है और न संकेत ही है। यह सम्भव है कि उसमें बौद्धधर्म को बिना स्वीकार किये ही उसके प्रति सहानुभूति व्यक्त की हो। यह तो सब उसने केवल भारतीय राजाओं की उस प्राचीन परम्परा के अनुसार किया हो। सभी धर्मों का संरक्षण करना राजा अपना कर्त्तव्य मानता था।२
धम्मपद अट्ठकथा में कुछ ऐसे प्रसंग दिये गये हैं। जो अजातशत्रु कूणिक की बुद्ध के प्रति दृढ़ श्रद्धा व्यक्त करते हैं पर उन प्रसंगों को आधुनिक मूर्धन्य मनीषीगण किंवदन्ती के रूप में स्वीकार करते हैं। उसका अधिक मूल्य नहीं है। कुछ ऐसे प्रसंग भी अवदानशतक आदि में आये हैं, जिससे अजातशत्रु की बुद्ध के प्रति विद्वेष भावना व्यक्त होती है। लगता है, ये दोनों प्रकार के प्रसंग कुछ अति मात्रा को लिये हुए हैं। उनमें तटस्थता का अभाव सा है।
सारांश यह है, अजातशत्रु कूणिक के अन्तर्मानस पर उसकी माता चेलना के संस्कारों का असर था। चेलना के प्रति उसके मानस में गहरी निष्ठा थी। चेलना ने ही कूणिक को यह बताया था कि तेरे पिता राजा श्रेणिक का तेरे प्रति कितना स्नेह
३८. दीघनिकाय सामञफलसुत्त, पृ. ३२ ३९. विनयपिटक, चुल्लवग्ग संगभेदक खंधक-७ ४०. जातकअट्ठकथा, थुस जातक समं. ३३८ ४१. अवदानशतक, ५४
Buddhist India, PP. 15-16 ४३. धम्मपद अट्ठकथा-१०-७, खण्ड-२, ६०५-६०६ ४४. अवदानशतक-५४
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