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________________ परिशिष्ट-१ : 'गण' और 'कुल' सम्बन्धी विशेष विचार १८१ दूर रहने के नाते बिल्कुल प्रसिद्धि में नहीं आये, पर जिनकी उच्चता एवं पवित्रता असाधारण तथा स्पृहणीय थी। उनके प्रति श्रद्धा, आदर और बहुमान दिखाने के लिए उन गणों के नामकरण, जिन-जिन में वे थे, उनके नामों से कर दिये गये हों। उत्तरवर्ती समय में संयोग कुछ ऐसे बने हों कि उन्हीं नामों के आचार्य हुए हों, जिनमें अपने नामों के साथ प्राक्तन गणों के नामों का साम्य देखकर अपने-अपने नाम से नये गण प्रवर्तित करने का उत्साह जागा हो। ये सब मात्र कल्पनाएँ और सम्भावनाएँ हैं । इस पहलू पर और गहराई से चिन्तन एवं अन्वेषण करना अपेक्षित तिलोयपण्णत्ति में भी गण का उल्लेख हुआ है। वहाँ कहा गया है— "सभी तीर्थंकरों में से प्रत्येक के पूर्वधर, शिक्षक, अवधिज्ञानी, केवली, वैक्रियलब्धिधर, विपुलमति और वादी श्रमणों के साथ गण होते हैं। भगवान् महावीर के सात गणों का वर्णन करते हुए तिलोयपण्णत्तिकार ने लिखा है "भगवान् महावीर के सात गणों में उन-उन विशेषताओं से युक्त श्रमणों की संख्याएँ इस प्रकार थीं—पूर्वधर तीन सौ, शिक्षक नौ हजार नौ सौ, अवधिज्ञानी एक हजार तीन सौ, केवली सात सौ, वैक्रियलब्धिधर नौ सौ, विपुलमति पाँच सौ तथा वादी चार सौ।"२ प्रस्तुत प्रकरण पर विचार करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यद्यपि 'गण' शब्द का प्रयोग यहाँ अवश्य हुआ है पर वह संगठनात्मक इकाई का द्योतक नहीं है। इसका केवल इतना-सा आशय है कि भगवान् महावीर के शासन में अमुक-अमुक वैशिष्टय-सम्पन्न श्रमणों के अमुक-अमुक संख्या के समुदाय या समूह थे अर्थात् उनके संघ में इन-इन विशेषताओं के इतने श्रमण थे। __ केवलियों, पूर्वधरों तथा अवधिज्ञानियों के और इसी प्रकार अन्य विशिष्ट गुणधारी श्रमणों के अलग-अलग गण होते, यह कैसे सम्भव था। यदि ऐसा होता तो उदाहरणार्थ सभी केवली एक ही गण में होते। वहाँ किसी तरह की तरतमता नहीं रहती। न शिक्षक-शैक्ष भाव रहता और न व्यवस्थात्मक संगति ही। यहाँ गण शब्द मात्र एक सामूहिक संख्या व्यक्त करने के लिए व्यवहत हुआ है। श्वेताम्बर-साहित्य में भी इस प्रकार के वैशिष्टय-सम्पन्न श्रमणों का उल्लेख हुआ है, जहाँ भगवान् महावीर के संघ में केवली सात सौ, मनःपर्यवज्ञानी पाँच सौ, अवधिज्ञानी तेरह सौ, चतुर्दश-पूर्वधर तीन सौ, वादि चार सौ, १. पुव्वधर सिक्खको ही, केवलिवेकुव्वी विठलमदिवादी । पत्तेकं सत्तगणा, सव्वाणं तित्थकत्ताणं ॥ -तिलोयपण्णत्ति १०९८ तिसयाई पुव्वधरा, णवणउदिसयाई होति सिक्खगणा । तेरससयाणि ओही, सत्तसयाई पि के वलिणो ॥ इगिसयरहिदसहस्सं, वेकुव्वी पणसयाणी विउलमदी । चत्तारि सया वादी, गणसंखा वड्डमाणजिणे ॥ -तिलोयपण्णत्ति ११६०-६१
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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