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________________ १८० भारद्वाजगोत्रीय स्थविर भद्रयश से उद्दवाइय-गण निकला। कुंडिलगोत्रीय स्थविर कामर्द्धि से वेसवाडिय (विस्सवाइय) गण निकला। वशिष्ठगोत्रीय काकन्दीय स्थविर ऋषिगुप्त से मानव-गण निकला। कोटिककाकन्दीय व्याघ्रापत्यगोत्रीय स्थविर सुस्थित- सुप्रतिबद्ध से कोटिक - गण निकला। भगवान् महावीर के नौ गणों में सातवें का नाम कामर्द्धिक (कामड्डिय) था । उसे छोड़ देने पर अवशेष नाम ज्यों के त्यों हैं। थोड़ा बहुत कहीं कहीं वर्णात्मक भेद दिखाई देता है, वह केवल भाषात्मक है। अपने समय की जीवित —जन - प्रचलित भाषा होने के कारण प्राकृत की ये सामान्य प्रवृत्तियाँ हैं । औपपातिकसूत्र प्रश्न उपस्थित होता है, भगवान् महावीर के गणों का गोदासगण, बलिस्सहगण आदि के रूप में जो नामकरण हुआ, उसका आधार क्या था ? यदि व्यक्तिविशेष के नाम के आधार पर गणों के नाम होते तो क्या यह उचित नहीं होता कि उन-उन गणों के व्यवस्थापकों ——गणधरों के नाम पर वैसा होता ? गणस्थित किन्हीं विशिष्ट साधुओं के नामों के आधार पर ये नाम दिये जाते जो उन विशिष्ट साधुओं के नाम आगम-वाड्मय में, जिसका ग्रथन गणधरों द्वारा हुआ, अवश्य मिलते। पर ऐसा नहीं है। समझ में नहीं आता, फिर ऐसा क्यों हुआ। विद्वानों के लिए यह चिन्तन का विषय है। ऐसी भी सम्भावना हो सकती है कि उत्तरवर्ती समय में भिन्न-भिन्न श्रमण स्थविरों के नाम से जो आठ समुदाय या गण चले, उन (गणों) के नाम भगवान् महावीर के गणों के साथ भी जोड़ दिये गये हों । एक गण जो बाकी रहता है, उसका नामकरण स्यात् आर्य सुहस्ती के बारह अंतेवासियों में से चौथे कामिडि (कामर्द्धि) नामक श्रमण श्रेष्ठ के नाम पर कर दिया गया हो, जो अपने समय के सुविख्यात आचार्य थे, जिनसे वेसवाडिय (विस्सवाइय) नामक गण निकला था। स्पष्टतया कुछ भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता, ऐसा (यह सब ) क्यों किया गया। हो सकता है, उत्तरवर्ती गणों की प्रतिष्ठापन्नता बढ़ाने के लिए यह स्थापित करने का प्रयत्न रहा हो कि भगवान् महावीर के गण भी इन्हीं नामों 'से अभिहित होते थे। १. एक सम्भावना और की जा सकती है, यद्यपि है तो बहुत दूरवर्ती, स्यात् भगवान् महावीर के नौ गणों में से प्रत्येक में एक-एक ऐसे उत्कृष्ट साधना- निरत, महातपा, परमज्ञानी, ध्यानयोगी साधक रहे हों, जो जन-सम्पर्क से थेरेहिंतो णं गोदासेहिंतो कासवगोत्तेहिंतो गोदासगणं नामं गणं निग्गए । थेरेहिंतो णं उत्तरबलिस्सहेहिंतो तत्थ णं उत्तरबलिस्सहगणं नामं गणं निग्गए । थेरेहिंतो णं अज्जरोहणेहिंतो कासवगोत्तेहिंतो तत्थ णं उद्देगणं नामं गणं निग्गए । थेरेहिंतो णं सिरिंगुत्तेहिंतो हारिय गोत्तेहिंतो एत्थ णं चारणगणं नामं गणं निग्गए । थेरेहिंतो णं भद्दजसेहिंतो भारद्दायगोत्तेहिंतो एत्थ णं उडुवाडियगणं निग्गए । थेरेहिंतो णं कामिड्डिहिंतो कुंडिलसगोत्तेहिंतो एत्थ णं वेसवाडियगणं नामं गणं निग्गए । थेरेहिंतो णं इसिगुत्तेहिंतो णं काकंद हिंतो वासिट्ठसगोत्तेहिंतो तत्थ णं माणवगणं नामं गणं निग्गए । थेरेहिंतो णं सुट्ठिय-सुपडिबुद्धेहिंतो कोडियकाकंद हिंतो वग्घावच्चसगोत्तेहिंतो एत्थ णं कोडियगणं नामं गणं निग्गए ।
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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