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नगरी का ह्रास प्रारम्भ हो गया था। उसने वहाँ पर स्थित विहारों का उल्लेख किया है।५ ट्वान्च्चांग भारतीय सांस्कृतिक केन्द्रों का निरीक्षण करता हुआ चम्पा पहुंचा था। वह इरण पर्वत से तीन सौ ली (पचास मील) की दूरी समाप्त कर चम्पा पहुंचा था। उसके अभिमतानुसार चम्पा देश की परिधि चार सौ ली (सत्तर मील) थी और नगर की परिधि चालीस ली (सात मील)। वह भी चम्पा को गंगा के दक्षिण तट पर अवस्थित मानता है। इसके आगमन के समय यह नगरी बहुत कुछ विनष्ट हो चुकी थी।
स्थानांग में जिन दश महानगरियों का उल्लेख है, उनमें चम्पा भी एक है। यह राजधानी थी। बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य की यह जन्मभूमि थी। आचार्य शय्यंभव ने दशवैकालिक सूत्र की रचना इस नगरी में की थी। विविध तीर्थ कल्प' के अनुसार सम्राट् श्रेणिक के निधन के पश्चात् सम्राट कुणिक को राजगृह में रहना अच्छा न लगा। एक स्थान पर चम्पा के सुन्दर उद्यान को देखकर चम्पानगर बसाया।२६
श्री कल्याणविजय गणि के अभिमतानुसार चम्पा पटना से पूर्व (कुछ दक्षिण में) लगभग सौ कोश पर थी, जिसे आज चम्पकमाला कहते हैं। यह स्थान भागलपुर से तीन मील दूर पश्चिम में है।२७
चम्पा उस युग में व्यापार का प्रमुख केन्द्र था, जहाँ पर माल लेने के लिए दूर-दूर के व्यापारी आते थे। चम्पा के व्यापारी भी माल लेकर के मिथिला, अहिच्छत्रा और पिहुण्ड (चिकाकोट और कलिंगपट्टम का एक प्रदेश) आदि में व्यापारार्थ जाते थे। चम्पा और मिथिला में साठ योजन का अन्तर था।
मज्झिमनिकाय के अनुसार पूर्ण कस्सप, मक्खलिगोसाल, अजितकेसकम्बलिन, पकुधकच्चायन, सञ्जय बेलट्ठिपुत्त तथा निग्गन्थनाथपुत्त का वहाँ पर विचरण होता था।९ जैन इतिहास के अनुसार भगवान् महावीर अनेक बार चम्पा नगरी में पधारे थे और उन्होंने ५६७ ई.पूर्व में तीसरा, ५५८ ई. में बारहवां और सन् ई. पूर्व ५४४ में छब्बीसवां वर्षावास चम्पानगरी में किया था। भगवान् महावीर चम्पा के उत्तर-पूर्व में स्थित पूर्णभद्र नामक चैत्य में विराजते थे।
प्रस्तुत आगम में चम्पा का विस्तृत वर्णन है। वह वर्णन परवर्ती साहित्यकारों के लिए मूल आधार रहा है। प्राचीन वास्तुकला की दृष्टि से इस वर्णन का अनूठा महत्त्व है। प्राचीन युग में नगरों का निर्माण किस प्रकार होता था, यह इस वर्णन से स्पष्ट है। नगर की शोभा केवल गगनचुम्बी प्रासादों से ही नहीं होती, किन्तु सघन वृक्षों से होती है और वे वृक्ष लहलहाते हैं पानी की सरसब्जता से। इसलिए नगर के साथ ही पूर्णभद्र चैत्य का उल्लेख हुआ है। वनखण्ड में विविध प्रकार के वृक्ष थे, लताएं थीं और नाना प्रकार के पक्षियों का मधुर कलरव था। सम्राट कूणिक : एक चिन्तन
चम्पा का अधिपति कूणिक सम्राट था। कूणिक का प्रस्तुत आगम में विस्तार से निरूपण है। वह भगवान् महावीर का परम भक्त था। उसकी भक्ति का जीता-जागता चित्र इसमें चित्रित है। उसी तरह कूणिक अजातशत्रु को बौद्ध परम्परा में भी बुद्ध का परम भक्त माना है। सामञ्जफनसुत्त के अनुसार तथागत बुद्ध के प्रथम दर्शन में ही वह बौद्ध धर्म को स्वीकार करता है। बुद्ध की अस्थियों पर स्तूप बनाने के लिए जब बुद्ध के भग्नावेष बाँटे जाने लगे, तब अजातशत्रु ने कुशीनारा के मल्लों को
२५. लेग्गे, फाहियान-१०० २६. विविध तीर्थ कल्प, -पृ. ६५ २७. श्रमण भगवान् महावीर, पृ. ३६९ २८. (क) ज्ञातृधर्मकथा, ८, पृ. ९७, ९, पृ. १२१-१५, पृ. १५९
(ख) उत्तराध्ययन-२१/२ २९. मज्झिमनिकाय, २/२ ३०. भगवान् महावीर : एक अनुशीलन-परिशिष्ट-१-२ देवेन्द्रमुनि ३१. एसाहं भन्ते, भगवन्तं शरणं गच्छामि धम्मं च भिक्खुसंघं च। उपासकं भं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं ।
- सामञफलसुत्त [१९]