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औपपातिकसूत्र
को लिए हुए पृथक् स्व-स्व स्थानीय उच्चारण युक्त अक्षरों सहित, अस्पष्ट उच्चारणवर्जित या हकलाहट से रहित, सुव्यक्त अक्षर-सन्निपात——वर्णसंयोग — वर्णों की व्यवस्थित श्रृंखला लिए हुए, पूर्णता तथा स्वर - माधुरी युक्त, श्रोताओं की सभी भाषाओं में परिणत होने वाली, एक योजन तक पहुँचने वाले स्वर में, अर्द्धमागधी भाषा में धर्म का परिकथन किया। उपस्थित सभी आर्य-अनार्य जनों को अग्लान भाव से बिना परिश्रान्त हुए धर्म का आख्यान किया । भगवान् द्वारा उद्गीर्ण अर्द्धमागधी भाषा उन सभी आर्यों और अनार्यों की भाषाओं में परिणत हो गई।
भगवान् ने जो धर्मदेशना दी, वह इस प्रकार है-—
लोक का अस्तित्व है, अलोक का अस्तित्व है। इसी प्रकार जीव, अजीव, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, अर्हत्, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, नरक, नैरयिक, तिर्यंचयोनि, तिर्यंचयोनिक जीव, माता, पिता, ऋषि, देव, देवलोक, सिद्धि, सिद्ध, परिनिर्वाण कर्मजनित आवरण के क्षीण होने से आत्मिक स्वस्थता — परम शान्ति, परिनिर्वृत्त—परिनिर्वाणयुक्त व्यक्ति —– इनका अस्तित्व है । प्राणातिपात — हिंसा, मृषावाद — असत्य, अदत्तादान — चोरी, मैथुन और परिग्रह हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ, (प्रेम-अप्रकट माया व लोभजनित प्रिय या रोचक भाव, द्वेष—अव्यक्त मान व क्रोध जनित अप्रिय या अप्रीति रूप भाव, कलह लड़ाई-झगड़ा, अभ्याख्यानमिथ्यादोषारोपण, पैशुन्यचुगली तथा पीठ पीछे किसी के होते - अनहोते दोषों का प्रकटीकरण, परपरिवाद — निन्दा, रति मोहनीय कर्म के उदय के परिणाम स्वरूप असंयम में सुख मानना, रुचि दिखाना, अरति —— मोहनीय कर्म के उदय के परिणाम स्वरूप संयम में अरुचि रखना, मायामृषा — माया या छलपूर्वक झूठ बोलना) यावत् मिथ्यादर्शन शल्य है।
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प्राणातिपातविरमण हिंसा से विरत होना, मृषावादविरमण ——– असत्य से विरत होना, अदत्तादानविरमण — चोरी से विरत होना, मैथुनविरमण — मैथुन से विरत होना, परिग्रहविरमण - परिग्रह से विरत होना, क्रोध से विरत होना, मान से विरत होना, माया से विरत होना, लोभ से विरत होना, प्रेम से विरत होना, द्वेष से विरत होना, कलह से विरत होना, अभ्याख्यान से विरत होना, पैशुन्य से विरत होना, पर-परिवाद से विरत होना, अरति-रति से विरत होना, यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक — मिथ्या विश्वास रूप काँटे का यथार्थ ज्ञान होना और त्यागना यह सब है—
सभी अस्तिभाव—अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से अस्तित्व को लिए हुए हैं। सभी नास्तिभाव पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से नहीं हैं— किन्तु वे भी अपने स्वरूप से हैं। सुचीर्ण सुन्दर रूप में प्रशस्तरूप में संपादित दान, शील, तप आदि कर्म उत्तम फल देने वाले हैं तथा दुश्चीर्ण-अप्रशस्त — पापमय कर्म अशुभ - दुःखमय फल देने वाले हैं। जीव पुण्य तथा पाप का स्पर्श करता है, बन्ध करता है। जीव उत्पन्न होते हैं— संसारी जीवों का जन्म-मरण है । कल्याण — शुभ कर्म, पाप अशुभ कर्म फल युक्त हैं, निष्फल नहीं होते।
प्रकारान्तर से भगवान् धर्म का आख्यान — प्रतिपादन करते हैं—यह निर्ग्रन्थप्रवचन, जिनशासन अथवा प्राणी अन्तर्वर्ती ग्रन्थियों को छुड़ाने वाला आत्मानुशासनमय उपदेश सत्य है, अनुत्तर— सर्वोत्तम है, केवल — अद्वितीय है, अथवा केवली - सर्वज्ञ द्वारा भाषित है, संशुद्ध - अत्यन्त शुद्ध, सर्वथा निर्दोष है, प्रतिपूर्ण — प्रवचन गुणों से सर्वथा परिपूर्ण हैं, नैयायिक — न्यायसंगत है— प्रमाण से अबाधित है तथा शल्य-कर्तन—माया आदि शल्योंकाँटों का निवारक है, यह सिद्धि या सिद्धावस्था प्राप्त करने का मार्ग—— उपाय है, मुक्तिकर्मरहित अवस्था या निर्लोभता का मार्ग — हेतु है, निर्वाण — सकल संताप रहित अवस्था प्राप्त कराने का पथ है, निर्याण — पुनः नहीं