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औपपातिकसूत्र सुणेस्सामो, सुयाइं निस्संकियाई करिस्सामो, अप्पेगइया अट्ठाई हेऊई कारणाइं वागरणाई पुच्छिस्सामो, अप्पेगइया सव्वओ समंता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सामो, पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जिस्सामो, अप्पेगइया जिणभत्तिरागेणं, अप्पेगइया जीयमेयंति कटु ण्हाया, कयबलिकम्मा, कयकोउयमंगलपायच्छित्ता, सिरसा कंठे मालकडा, आविद्धमणिसुवण्णा, कप्पियहारद्धहार-तिसर-पालंबपलंबमाण-कडिसुत्त-सुकयसोहाभरणा, पवरवत्थपरिहिया, चंदणोलित्तगायसरीरा, अप्पेगइया हयगया एवं गयगया, रहगया, सिवियागया, संदमाणियागया, अप्पेगइया पायविहारचारेणं पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता महया उक्किट्ठसीहणाय-बोल-कलकलरवेणं पक्खुब्भियमहासमुद्दरवभूयं पिव करेमाणा चंपाए णयरीय मझमझेणं णिग्गच्छंति, णिगच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्तादीए तित्थयराइसेसे पासंति, पासित्ता जाणवाहणाइं ठवेंति, ठवेत्ता जाणवाहणेहितो पच्चोरुहंति, पच्चोरुहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति, करित्ता वंदंति णमस्संति, वंदित्ता, णमंस्सित्ता णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणा, णमंसमाणा, अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पज्जुवासंति।
३८- उस समय चंपा नगरी के सिंघाटकों-तिकोने स्थानों, त्रिकों तिराहों, चतुष्कों-चौराहों, चत्वरोंजहाँ चार से अधिक रास्ते मिलते हों ऐसे स्थानों, चतुर्मुखों चारों ओर मुख या द्वारयुक्त देवकुलों, राजमार्गों, गलियों से मनुष्यों की बहुत आवाज आ रही थी, बहुत लोग शब्द कर रहे थे, आपस में कह रहे थे, फुसफुसाहट कर रहे थे-धीमे स्वर में बात कर रहे थे। लोगों का बड़ा जमघट था। वे बोल रहे थे। उनकी बातचीत की कलकलमनोज्ञ ध्वनि सुनाई देती थी। लोगों की मानो एक लहर सी उमड़ी आ रही थी। छोटी-छोटी टोलियों में लोग फिर रहे थे, इकट्ठे हो रहे थे। बहुत से मनुष्य आपस में आख्यान—चर्चा कर रहे थे, अभिभाषण कर रहे थे, प्रज्ञापित कर रहे थे—जता रहे थे, प्ररूपित कर रहे थे—एक दूसरे को बता रहे थे
देवानुप्रियो ! आदिकर अपने युग में धर्म के आद्य प्रवर्तक, तीर्थंकर साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप, धर्मतीर्थ धर्मसंघ के प्रतिष्ठापक, स्वयंसंबुद्ध स्वयं बिना किसी अन्य निमित्त के बोध प्राप्त, पुरुषोत्तम पुरुषों में उत्तम....सिद्धि-गतिरूप स्थान की प्राप्ति हेत समद्यत भगवान महावीर यथाक्रम आगे से आगे विहार करते हए ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए एक गाँव से दूसरे गाँव का स्पर्श करते हुए यहाँ आये हैं, संप्राप्त हुये हैं—समवसृत हुए हैं—पधारे हैं। यहीं चंपा नगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य में यथोचित –श्रमणचर्या के अनुरूप स्थान ग्रहण कर संयम और तप से आत्मा को अनुभावित करते हुए विराजित हैं। हम लोगों के लिए यह बहुत ही लाभप्रद है। देवानुप्रियो! ऐसे अर्हत् भगवान् के नाम-गोत्र का सुनना भी बहुत बड़ी बात है, फिर अभिगमन–सम्मुख जाना, वन्दन, नमन, प्रतिपृच्छा—जिज्ञासा करना उनसे धर्मतत्त्व के सम्बन्ध में पूछना, उनकी पर्युपासना करना—उनका सानिध्य प्राप्त करना—इनका तो कहना ही क्या! सद्गुणनिष्पन्न, सद्धर्ममय एक सुवचन का श्रवण भी बहुत बड़ी बात है, फिर विपुल–विस्तृत अर्थ के ग्रहण की तो बात ही क्या! अतः देवानुप्रियो ! अच्छा हो, हम जाएँ और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन करें, नमन करें, उनका सत्कार करें, सम्मान करें। भगवान् कल्याण हैं, मंगल हैं, देव हैं,