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________________ औपपातिकसूत्र कलुसजल-संचयं, पइभयं, अपरिमियमहिच्छ- कलुसमइ - वाउवेगउद्धुम्ममाण- दगरयरयंधआर-वरफेणपउर- आसापिवासधवलं, मोहमहावत्त-भोग- भममाण- गुप्पमाणुच्छलंत - पच्चोणियत्त-पाणिय- पमायचंडबहुदुट्ठ-सावयसमाहयुद्धायमाण- पब्भार- घोरकंदिय - महारवरवंतभेरवरवं, अण्णाणभमंतमच्छपरिहत्थअणिहुयिंदियमहामगर - तुरियचरियखोखुब्भमाण- नच्चंत -चवलचचंलचलंत - धुम्मंतजलसमूहं, अरइ-भयविसय-सोग-मिच्छत्त-सेलसंकडं, अणाइसंताणकम्मबंधण - किलेस चिक्खिल्लसुदुत्तारं, अमर-णर- तिरियणय- गइगमण - कुडिलपरियत्तविउलवेलं, चउरंतं, महंतमणवयग्गं, रुद्दं संसारसागरं भीमं दरिसणिजं तरंति धिइधणियनिप्पकंपणे तुरियचवलं संवर-वेरग्ग-तुंगकूवयसुसंपउत्तेणं, णाम- सिय- विमलमूसिएणं सम्मत्त - विसुद्ध - णिज्जामएणं धीरा संजम - पोएण सीलकंलिया पसत्थज्झाण- तववाय-पणोल्लियपहाविएणं उज्जम - ववसायग्गहियणिज्जरण- जयणउवओग - णाण- दंसण - [ चरित्त ] विसुद्धवय [ वर ] भंडभरियसारा, जिणवरवयणोवदिट्ठमग्गेण अकुडिलेण सिद्धिमहापट्टणाभिमुहा समणवरसत्थवाहा सुसुइ-सुसंभास-सुपण्ह- सासा गामे गामे एगरायं, जगरे नगरे पंचरायं दूइज्जंता, जिइंदिया, णिब्भया, गयभया सचित्ताचित्तमीसिएसु दव्वेसु विरागयं गया, संजया [विरता ], मुत्ता, लहुया, णिरवकंखा साहू णिहुया चरंति धम्मं । .७८ ३२ – वे (अनगार) संसार के भय से उद्विग्न एवं चिन्तित थे— आवागमन रूप चतुर्गतिमय चक्र को कैसे पार कर पाएँ इस चिन्ता में व्यस्त थे । यह संसार एक समुद्र है। जन्म, वृद्धावस्था तथा मृत्यु द्वारा जनित घोर दुःख रूप प्रक्षुभित—छलछलाते प्रचुर जल से यह भरा है। उस जल में संयोग-वियोग — मिलन तथा विरह के रूप में लहरें उत्पन्न हो रही हैं । चिन्तापूर्ण प्रसंगों से वे लहरें दूर-दूर तक फैलती जा रही हैं। वध और बन्धन रूप विशाल, विपुल कल्लोलें उठ रही हैं, जो करुण विलपित—शोकपूर्ण विलाप तथा लोभ की कलकल करती तीव्र ध्वनि से युक्त हैं। तोयपृष्ठ — जल का ऊपरी भाग अवमानना —— अवहेलना या तिरस्कार रूप झागों से ढँका है। तीव्र निन्दा, निरन्तर अनुभूत, रोग- वेदना, औरों से प्राप्त होता अपमान, विनिपात — नाश, कटु वचन द्वारा निर्भर्त्सना, तत्प्रतिबद्ध, ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के कठोर उदय की टक्कर से उठती हुई तरंगों से वह परिव्याप्त है। वह (तोयपृष्ठ) नित्य मृत्युभय रूप है। यह संसार रूप समुद्र कंषाय क्रोध, मान, माया, लोभ रूप पाताल – तलभूमि से परिव्याप्त है। इस (समुद्र) में लाखों जन्मों में अर्जित पापमय जल संचित है। अपरिमित – असीम इच्छाओं से म्लान बनी बुद्धि रूपी वायु के वेग से ऊपर उछलते सघन जल-कणों के कारण अंधकारयुक्त तथा आशा - अप्राप्त पदार्थों सम्भावना, पिपासा — अप्राप्त पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा द्वारा उजले झागों की तरह वह धवल है। प्राप्त होने की संसार - सागर में मोह के रूप में बड़े-बड़े आवर्त—— जलमय विशाल चक्र हैं। उनमें भोग रूप भंवर — जल के छोटे गोलाकार घुमाव हैं। अतएव दुःख रूप जल भ्रमण करता हुआ— चक्र काटता हुआ, चपल होता हुआ, ऊपर उछलता हुआ, नीचे गिरता हुआ विद्यमान है। अपने में स्थित प्रमाद रूप प्रचण्ड भयानक, अत्यन्त दुष्ट हिंसक जल-जीवों से आहत होकर ऊपर उछलते हुए, नीचे गिरते हुए, बुरी तरह चीखते-चिल्लाते हुए क्षुद्र जीव-समूहों से यह (समुद्र) व्याप्त है। वही मानो उसका भयावह घोष या गर्जन है।
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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