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________________ ६० आचार में स्थापित करते हैं, उन कारणों से वे आचार्य कहे जाते हैं। १ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में आचार्य की विशेषताओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। वहाँ आचार्य की निम्नांकित आठ सम्पदाएं बतलाई गई हैं— १. आचार - सम्पदा, २. श्रुत - सम्पदा, ३. शरीर - सम्पदा, ४. वचन - सम्पदा, ५. वाचना - सम्पदा, ६. मतिसम्पदा, ७. प्रयोग- सम्पदा, ८. संग्रह - सम्पदा । उपाध्याय जैनदर्शन ज्ञान तथा क्रिया के समन्वित अनुसरण पर आधृत है। संयममूलक आचार का परिपालन जैन साधक के जीवन का जहाँ अनिवार्य अंग है, वहाँ उसके लिए यह भी अपेक्षित है कि वह ज्ञान की आराधना में भी अपने को तन्मयता के साथ जोड़े। सद्ज्ञानपूर्वक आचरित क्रिया में शुद्धि की अनुपम सुषमा प्रस्फुटित होती है। जिस प्रकार ज्ञान- प्रसूत क्रिया की गरिमा है, उसी प्रकार क्रियान्वित या क्रियापरिणत ज्ञान की ही वास्तविक सार्थकता है। ज्ञान और क्रिया जहाँ पूर्व तथा पश्चिम की तरह भिन्न-भिन्न दिशाओं में जाते हैं, वहाँ जीवन का ध्येय सधता नहीं । अध्यवसाय एवं उद्यम द्वारा इन दोनों पक्षों में सामंजस्य उत्पन्न कर जिस गति से साधक साधना - पथ पर अग्रसर होगा, साध्य को आत्मसात करने में वह उतना ही अधिक सफल होगा। साधनामय जीवन के अनन्य अंग ज्ञानानुशीलन से उपाध्याय पद का विशेषतः सम्बन्ध है । उपाध्याय श्रमणों को सूत्रवाचना देते हैं। कहा गया है— "जिन - प्रतिपादित द्वादशांगरूप स्वाध्याय – सूत्र वाङ्मय ज्ञानियों द्वारा कथित — वर्णित या संग्रथित किया गया है। जो उसका उपदेश करते हैं, वे उपाध्याय कहे जाते हैं । २ औपपातिकसूत्र यहाँ सूत्र-वाङ्मय का उपदेश करने का आशय आगमों की सूत्र - वाचना देना है। स्थानांगवृत्ति में भी उपाध्याय का सूत्रदाता (सूत्रवाचनादाता) के रूप में उल्लेख हुआ है। आचार्य की सम्पदाओं के वर्णन-प्रसंग में यह बतलाया गया है कि आगमों की अर्थ-वाचना आचार्य देते हैं। यहाँ जो उपाध्याय द्वारा स्वाध्यायोपदेश या सूत्र - वाचना देने का उल्लेख है, उसका तात्पर्य यह है कि सूत्रों के पाठोच्चारण की शुद्धता, स्पष्टता, विशदता, अपरिवर्त्यता तथा स्थिरता बनाये रखने हेतु उपाध्याय पारंपरिक एवं आज की भाषा में भाषावैज्ञानिक आदि दृष्टियों से अन्तेवासी श्रमणों को मूल पाठ का सांगोपांग शिक्षण देते हैं। अनुयोगद्वार सूत्र में 'आगमतः द्रव्यावश्यक' के संदर्भ में पठन या वाचन का विवेचन करते हुए तत्सम्बन्धी विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है, जिससे प्रतीत होता है कि पाठ की एक अक्षुण्ण तथा स्थिर परंपरा जैन श्रमणों में रही है। आगम-पाठ को यथावत् बनाये रखने में इससे बड़ी सहायता मिलती है। आगम-गाथाओं का उच्चारण कर देना मात्र पाठ या वाचना नहीं है। अनुयोगद्वार सूत्र में शिक्षित, जित, स्थित, मित, परिजित, नामसम, घोषसम, अहीनाक्षर, अनत्यक्षर, अव्याविद्धाक्षर, अस्खलित, अमिलित, अव्यत्याम्रेडित, १. २. आचिनोति च शास्त्रार्थमाचारे स्थापयत्यपि । स्वयमाचरते यस्मादाचार्यस्तेन कथ्यते ॥ बारसंगो जिणक्खाओ, सज्जओ कहिओ बुहेहिं । ते उवइति जम्हा, उवज्झया तेण वच्वंति ॥ - भगवती सूत्र १.१.१, मंगलाचरण वृत्ति
SR No.003452
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_aupapatik
File Size17 MB
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