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________________ भगवान् ने कहा-गौतम! असंयत, संयतासंयत और संयत ये सभी कर्म बाँधते हैं। तात्पर्य यह है कि सकर्म आत्मा ही कर्मबंधक है, उन्हीं पर कर्म का प्रभाव होता है। कर्मबंध के कारण जीव के साथ कर्म का अनादि सम्बन्ध है किन्तु कर्म किन कारणों से बंधते हैं, यह एक सहज जिज्ञासा है। गौतम ने प्रश्न किया भगवन्! जीव कर्मबंध कैसे करता है ? भगवान् ने उत्तर दिया गौतम! ज्ञानावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शनावरणीय कर्म का तीव्र उदय होता है। दर्शनावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शनमोह का उदय होता है। दर्शनमोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व का उदय होता है और मिथ्यात्व के उदय से जीव आठ प्रकार के कर्मों को बाँधता है।६२ स्थानाङ्ग६३ समवायाङ्ग६४ में तथा उमास्वाति ने कर्मबंध के पांच कारण बताये हैं—(१) मिथ्यात्व, (२)अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय और (५) योग।६५ संक्षेप दृष्टि से कर्मबंध के दो कारण हैं—कषाय और योग।६६ कर्मबंध के ये चार भेद हैं- प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ६७ इनमें प्रकृति और प्रदेश का बंध योग से होता है एवं स्थिति व अनुभाग का बंध कषाय से होता है।६८ संक्षेप में कहा जाय तो कषाय ही कर्मबंध का मुख्य हेतु है।६९ कषाय के अभाव में साम्परायिक कर्म का बंध नहीं होता। दसवें गुणस्थान तक दोनों कारण रहते हैं, अतः वहाँ तक साम्परायिकबंध होता है। कषाय और योग से होने वाला बंध साम्परायिकबंध कहलाता है और वीतराग को योग के निमित्त से जो गमनागमन आदि क्रियाओं से कर्मबंध होता है वह ईर्यापथिकबंध ककहलाता है। ईर्यापथकर्म की स्थिति उत्तराध्ययन प्रज्ञापना७२ में दो समय की मानी है और दिगम्बर ग्रन्थों में एवं पं. सुखलालजी७३ ने सिर्फ एक समय की मानी है। योग होने पर भी अगर कषायाभाव हो तो उपार्जित कर्म की स्थिति या रस का बंध नहीं होता। स्थिति और रस दोनों के बंध का कारण कषाय ही है। विस्तार से कषाय के चार भेद हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ।७४ स्थानाङ्ग और प्रज्ञापना में कर्मबंध के ६२. ६३. ६५. ६६. ६७. ६८. ६९. ७०. प्रज्ञापना २३।१।२८९ स्थानाङ्ग ४१८ समवायाङ्ग ५ समवाय तत्त्वार्थसूत्र ८१ समवायाङ्ग २ तत्त्वार्थसूत्र-८४ (क) स्थानाङ्ग ४ स्थान (ख) पंचम कर्मग्रन्थ गा. ६ तत्त्वार्थसूत्र ८२ तत्त्वार्थसूत्र ६१५ उत्तराध्ययन अ. २९ पृ. ७१ प्रज्ञापना २३।१३ पृ. १३७ (क) समयट्ठिदिगो बंधो...गोम्मटसार कर्मकांड, (ख) तत्त्वार्थसूत्र पं. सुखलालजी, पृ. २१७ (क) सूत्रकृताङ्ग ६।२६ (ख) स्थानाङ्ग ४।१।२५१, (ग) प्रज्ञापना २३।१।२९० [२६] ७३. ७४.
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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