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________________ कर्मबंध के ये चार कारण बताये हैं। संक्षेप में कषाय के दो भेद हैं-राग और द्वेष।७५ राग और द्वेष में भी उन चारों का समन्वय हो जाता है। राग में माया और लोभ तथा द्वेष में क्रोध ओर मान का समावेश होता है।७९ राग और द्वेष के द्वारा ही अष्टविध कर्मों का बंधन होता है।७७ अतः राग-द्वेष को ही भावकर्म माना है।७८ राग-द्वेष का मल मोह ही है। ने लिखा है—जिस मनुष्य के शरीर पर तेल चुपड़ा हो, उसका शरीर उड़ने वाली धूल से लिप्त हो जाता है। वैसे ही राग-द्वेष के भाव से आक्लिन्न हुए आत्मा पर कर्म-रज का बंध हो जाता है।७९ स्मरण रखना चाहिए कि मिथ्यात्व को जो कर्म-बंधन का कारण कहा है, उसमें भी राग-द्वेष ही प्रमुख हैं। राग-द्वेष की तीव्रता से ही ज्ञान विपरीत होता है। इसके अतिरिक्त जहाँ मिथ्यात्व होता है वहाँ अन्य कारण स्वतः होते ही हैं। अतः शब्द-भेद होने पर भी सभी का सार एक ही है। केवल संक्षेप-विस्तार के विवक्षाभेद से उक्त कथन समझना चाहिए। जैनदर्शन की तरह बौद्ध-दर्शन ने भी कर्मबंधन का कारण मिथ्याज्ञान और मोह माना है। न्यायदर्शन का भी यही मन्तव्य है कि मिथ्याज्ञान ही मोह है। प्रस्तुत मोह केवल तत्त्वज्ञान की अनुत्पत्ति रूप नहीं है किन्तु शरीर इन्द्रिय, मन, वेदना, बुद्धि ये अनात्म होने पर भी इनमें मैं ही हूँ ऐसा ज्ञान मिथ्याज्ञान और मोह है। यही कर्मबंधन का कारण है। वैशेषिक दर्शन भी प्रकृत कथन का समर्थन करता है।८२ सांख्यदर्शन भी बंध का कारण विपर्यास मानता है८३ और विपर्यास ही मिथ्याज्ञान है।४'योगदर्शन क्लेश को बंध का कारण मानता है और क्लेश का कारण अविद्या है।८५ उपनिषद८६ भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्र में भी अविद्या को ही बंध का कारण माना है। इस प्रकार जैनदर्शन और अन्य दर्शनों में कर्मबंध के कारणों में शब्दभेद और प्रक्रियाभेद होने पर भी मूल भावनाओं में खास भेद नहीं है। ७६. ७७. ७८. ८१. ८२. ८३. ८४. ८५. उत्तराध्ययन ३२७ (क) स्थानाङ्ग २१३, (ख) प्रज्ञापना २३, (ग) प्रवचनसार गा. ९५ प्रतिक्रमण सूत्रवृत्ति आचार्य नमि (क) उत्तराध्ययन ३२७, (ख) स्थानाङ्ग २१२, (ग) समयसर गाथा ९४।९६।१०९।१७७ (घ) प्रवचनसार १८४८८ आवश्यक टीका (क) सुत्तनिपात ३१२३३, (ख) विसुद्धिमग्ग १७३०२, (ग) मज्झिमनिकाय महातण्हासंखयसुत्तं ३८ (क) न्यायभाष्य ४।२।१, (ख) न्यायसूत्र १।१।२, (ग) न्यायसूत्र ४।१।३ (घ) न्यायसूत्र ४।१।६ (क) प्रशस्तपाद पृ. ५३८ विपर्यय निरूपण, (ख) प्रशस्तपाद भाष्य संसारापवर्ग प्रकरण सांख्यकारिका ४४-४७-४८ ज्ञानस्य विपर्ययोऽज्ञानम् -मराठ वृत्ति ४ योगदर्शन २३४ कठोपनिषद् १२५ भगवद्गीता ५।१५६ [२७] ८६. ७.
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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