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________________ अनेक स्वतन्त्र विशाल ग्रन्थ उपलब्ध हैं। कर्मवाद पर जैन परम्परा में अत्यन्त सूक्ष्म, सुव्यवस्थित और बहुत ही विस्तृत विवेचन किया गया है। यह साधिकार कहा जा सकता है कि कर्म सम्बन्धी साहित्य का जैन साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है और वह साहित्य 'कर्मशास्त्र' या 'कर्मग्रन्थ' के नाम से विश्रुत है। स्वतन्त्र कर्मग्रन्थों के अतिरिक्त भी आगम व आगमेतर. जैनग्रन्थों में यत्र-तत्र कर्म के सम्बन्ध में चर्चाएं उपलब्ध हैं। कर्म सम्बन्धी साहित्य भगवान् महावीर से लेकर आज तक कर्मशास्त्र का जो संकलन-आकलन हुआ है, वह बाह्य रूप से तीन विभागों में विभक्त किया जा सकता है—पूर्वात्मक कर्मशास्त्र, पूर्वोद्धृत कर्मशास्त्र और प्राकरणिक कर्मशास्त्र ।२३ जैन इतिहास की दृष्टि से चौदह पूर्वो में से आठवाँ पूर्व, जिसे 'कर्मवाद' कहा जाता है, उसमें कर्म-विषयक वर्णन था। इसके अतिरिक्त दूसरे पूर्व के एक विभाग का नाम 'कर्मप्राभृत' था और पांचवें पूर्व के एक विभाग का नाम 'कषायप्राभृत' था। इनमें भी कर्म सम्बन्धी ही चर्चाएं थीं। आज वे अनुपलब्ध हैं, किन्तु पूर्व साहित्य में से उद्धृत कर्मशास्त्र दोनों ही जैन परम्पराओं में उपलब्ध है। सम्प्रदाय भेद होने से नामों में भिन्नता होना स्वाभाविक है। दिगम्बर. परम्परा में 'महाकर्मप्रकृति प्राभृत' (षट्खण्डागम) और कषायप्राभृत ये दो ग्रन्थ पूर्व से उद्धृत माने जतो हैं । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार कर्मप्रकृति, शतक, पंचसंग्रह और सप्ततिका ये चार ग्रन्थ पूर्वोद्धृत माने जाते हैं। प्राकरणिक कर्मशास्त्र में कर्म सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ आते हैं, जिनका मूल अ पोद्धृत कर्म साहित्य रहा है। प्राकरणिक कर्मग्रन्थों का लेखन विक्रम की आठवीं नवीं शती से लेकर सोलहवीं सत्तरहवीं शती तक हुआ है। आधुनिक विज्ञों ने कर्मविषयक साहित्य का जो सजन किया है, वह मुख्य रूप से कर्मग्रन्थों के विवेचन के रूप में भाषा की दृष्टि से कर्म साहित्य को प्राकृत, संस्कृत और प्रादेशिक भाषाओं में विभक्त कर सकते हैं। पूर्वात्मक दधत कर्मग्रन्थ प्राकत भाषा में हैं। प्राकरणिक कर्म साहित्य का विशेष अंश प्राकत में ही है। मल ग्रन्थों के अतिरिक्त उन पर लिखी गई वत्तियाँ और टिप्पणियाँ भी प्राकत में हैं। बाद में कछ कर्मग्रन्थ संस्कत में भी लिखे गये, किन्तु मुख्य रूप से संस्कृत भाषा में उस पर वृत्तियाँ ही लिखी गई हैं। संस्कृत में लिखे हुए मूल कर्मग्रन्थ, प्राकरणिक कर्मशास्त्र में आते हैं। प्रादेशिक भाषाओं में लिखा हुआ कर्म साहित्य कन्नड़, गुजराती और हिन्दी में है। इनमें मौलिक अंश बहुत ही कम है, अनुवाद और विवेचन ही मुख्य है। कन्नड और हिन्दी में दिगम्बर साहित्य अधिक लिखा गया है और गुजराती में श्वेताम्बर साहित्य। विस्तारभय से उन सभी ग्रन्थों का परिचय देना यहाँ सम्भव नहीं है। संक्षेप में उपलब्ध दिगम्बरीय कर्म साहित्य का प्रमाण लगभग पांच लाख श्लोक हैं। और श्वेताम्बरीय कर्म साहित्य का ग्रन्थमान लगभग दो लाख श्लोक हैं। श्वेताम्बरीय कर्म-साहित्य का प्राचीनतम स्वतन्त्र ग्रन्थ शिवशर्मसूरिकृत कर्मप्रकृति है। उसमें ४७५ गाथाएं हैं। इसमें आचार्य ने कर्म सम्बन्धी बन्धनकरण, संक्रमणकरण, उद्वर्तनाकरण, अपवर्तनाकरण, उदीरणाकरण, उपशमनाकरण, निधत्तिकरण और निकाचनाकरण इन आठ करणों (करण का अर्थ है आत्मा का परिणामविशेष) एवं उदय और सत्ता इन दो अवस्थाओं का वर्णन किया है। इस पर एक चूर्णि भी लिखी गई थी। प्रसिद्ध टीकाकार मलयगिरि और उपाध्याय यशोविजयजी ने संस्कृत भाषा में इस पर टीका लिखी है। आचार्य शिवशर्म की एक अन्य रचना 'शतक' है। इस पर २३. कर्मग्रन्थ, भाग १ प्रस्तावना, पृ. १५-१६ पं. सुखलालजी [१७]
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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