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________________ दार्शनिक गहन व सांसारिक जीव जो विविध प्रकार के कर्मों का बंध करते हैं उन्हें विपाक की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया गया है— शुभ और अशुभ, पुण्य और पाप अथवा कुशल और अकुशल । इन दो भेदों का उल्लेख जैनदर्शन, १६, बौद्धदर्शन,१७ सांख्यदर्शन१८, योगदर्शन १६, न्यायदर्शन २०, वैशेषिकदर्शन २१, और उपनिषद् २ आदि में हुआ है। जिस कर्म के फल को प्राणी अनुकूल अनुभव करता है वह पुण्य है और जिसे प्रतिकूल अनुभव करता है वह पाप है । पुण्य के शुभ फल की तो सभी इच्छा करते हैं किन्तु पाप के फल की कोई इच्छा नहीं करता। फिर भी उसके विपाक से बचा नहीं जा सकता। कर्म - सिद्धान्त जैन दर्शन का एक प्रमुख सिद्धान्त है। उस सिद्धान्त का प्रस्तुत आगम गंभीर विश्लेषण न कर उदाहरणों के माध्यम से विषय को प्रतिपादित किया गया है। जीव ने जो कर्म बाँधा है, उसे इस जन्म में या आगामी जन्मों में भोगना ही पड़ता है । कृतकर्मों का फल भोगे बिना आत्मा का छुटकारा नहीं हो सकता। प्रस्तुत आगम में पाप और पुण्य की गुरु ग्रन्थियों को उदाहरणों के द्वारा सरल रूप से उद्घाटित किया गया है। जिन जीवों ने पूर्वभव में विविध पापकृत्य किये हैं, उन्हें आगामी जीवन में दारुण वेदनाएं प्राप्त हुईं। दुःखविपाक में उन्हीं पापकृत्य करने वाले जीवों का वर्णन है। जिन्होंने पूर्वभव में सुकृत किये थे, उन्हें भविष्य में सुख उपलब्ध हुआ। कर्मवाद का महत्त्व भारतीय तत्त्वचिन्तक महर्षियों ने कर्मवाद पर गहराई से अनुचिन्तन किया है। न्याय, सांख्य, वेदान्त, वैशेषिक, मीमांसक, बौद्ध और जैन सभी दार्शनिकों ने कर्मवाद के सम्बन्ध में चिन्तन किया है। केवल दर्शन ही नहीं अपितु धर्म, साहित्य, ज्ञान, विज्ञान और कला आदि पर कर्मवाद की प्रतिच्छाया स्पष्ट रूप से निहारी जा सकती है। विश्व के विशाल मंच पर सर्वत्र विषमता, विविधता, विचित्रता का एकच्छत्र साम्राज्य देखकर प्रबुद्ध विचारकों ने कर्म के अद्भुत सिद्धान्त की गवेषणा की। भारतीय जन-जन के मन की यह धारणा है कि प्राणीमात्र को सुख और दुःख की जो उपलब्धि होती है वह स्वयं के किये गये कर्म का ही प्रतिफल है। कर्म से बँधा हुआ जीव अनादिकाल से नाना गतियों व योनियों मे ं परिभ्रमण कर रहा है। जन्म और मृत्यु का मूल कर्म है और कर्म ही दुःख का सर्जक है। जो जैसा करता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। किन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि एक प्राणी अन्य प्राणी के कर्मफल का अधिकारी नहीं होता । प्रत्येक प्राणी का कर्म स्वसंबद्ध होता है, पर सम्बद्ध नहीं । यह सत्य है कि सभी भारतीय दार्शनिकों ने कर्मवाद की संस्थापना में योगदान दिया किन्तु जैन परम्परा में कर्मवाद का जैसा सुव्यवस्थित रूप उपलब्ध है वैसा अन्यत्र नहीं । वैदिक और बौद्ध साहित्य में कर्म सम्बन्धी विचार इतना अल्प है कि उसमें कर्म विषयक कोई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ दृष्टिगोचर नहीं होता, जब कि जैन साहित्य में कर्म सम्बन्धी १६. १७. १८. १९. २०. २१. २२. तत्त्वार्थसूत्र ६ । ३-४ विशुद्धिमग्गो १७ । ८८ सांख्यकारिका ४४ (क) योगसूत्र २ । १४ न्यायमंजरी पृ. ४७२ प्रशस्तपाद पृ. ६३७ । ६४६ बृहदारण्यक ३ । २ । १३ (ख) योगभाष्य २ । १२ [ १६ ]
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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