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________________ भी मलयगिरि ने टीका लिखी है। पार्श्वऋषि के शिष्य चन्द्रर्षि महत्तर ने पंचसंग्रह की रचना की और उस पर स्वोपज्ञवृत्ति भी लिखी। इसके पूर्व भी दिगम्बर परम्परा में प्राकृत पंचसंग्रह उपलब्ध था, किन्तु उसकी कर्मविषयक कितनी ही मान्यताएं आगम-साहित्य से मेल नहीं खाती थीं, इसलिए चन्द्रर्षि महत्तर ने नवीन पंचसंग्रह की रचना कर उसमें आगम मान्यताएं गुंफित की। आचार्य मलयगिरि ने उस पर भी संस्कृत टीका लिखी है। जैन परम्परा के प्राचीन आचार्यों ने प्राचीन कर्मग्रन्थ भी लिखे थे। जिनके नाम इस प्रकार हैं-कर्म-विषाक, कर्म-स्तव, बंध-स्वामित्व, सप्ततिका और शतक। इन पर उनका स्वयं का स्वोपज्ञ विवरण है। प्राचीन कर्मग्रन्थों को आधार बना कर देवेन्द्रसूरि ने नवीन पांच कर्मग्रन्थ बनाये। इसप्रकार जैन परम्परा में कर्मविषयक साहित्य पर्याप्त उर्वर स्थिति में है। मध्य युग के आचार्यों ने इन पर बालावबोध भी लिखे हैं, जिन्हें प्राचीन भाषा में टब्बा कहा जाता है। जैन दर्शन का मन्तव्य कर्मवाद के समर्थक दार्शनिक चिन्तकों ने कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, यदृच्छावाद, भूतवाद, पुरुषवाद, आदि मान्यताओं का सुन्दर समन्वय करते हुए इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। विश्व-वैचिव्य का मुख्य कारण कर्म है और काल आदि उसके सहकारी कारण है। कर्म को प्रधान कारण मानने से जन-जन के मन से आत्मविश्वास और आत्मबल पैदा होता है और साथ ही पुरुषार्थ का पोषण होता है। सुख-दु:ख का प्रधान कारण अन्यत्र न ढूंढ कर अपने आप में ढूंढना बुद्धिमत्ता है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने लिखा है कि काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ इन पाँच कारणों में से किसी एक को ही कारण माना जाए और शेष कारणों की उपेक्षा की जाए, यह मिथ्यात्व है। कार्यनिष्पत्ति में काल आदि सभी कारणों का समन्वय किया जाय यह सम्यक्त्व है। इसी क आचार्य हरिभद्र ने भी किया है।२५ दैव, कर्म, भाग्य और पुरुषार्थ के सम्बन्ध में अनेकान्त दृष्टि रखनी चाहिए। आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है-बुद्धिपूर्वक कर्म न करने पर भी इष्ट या अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति होना दैवाधीन है। बुद्धिपूर्वक प्रयत्न से इष्टानिष्ट की प्राप्ति होना पुरुषार्थ के अधीन है। कहीं पर दैव प्रधान होता है तो कहीं पर पुरुषार्थ ।२६ दैव और पुरुषार्थ के सही समन्वय से ही अर्थसिद्धि होती है। __ जैनदर्शन में जड़ और चेतन पदार्थों के नियामक के रूप में ईश्वर या पुरुष की सत्ता नहीं मानी गई है। उसका मन्तव्य है कि ईश्वर या ब्रह्म को जगत् की उत्पत्ति, स्थिति व संहार का कारण या नियामक मानना निरर्थक है। कर्म आदि कारणों से ही प्राणियों के जन्म, जरा और मरण आदि की सिद्धि की जा सकती है। अतएव कर्ममूलक विश्वव्यवस्था मानना तर्कसंगत है। कर्म अपने नैसर्गिक स्वभाव से अपने-आप फल प्रदन करने में समर्थ होता है। कर्मवाद की.ऐतिहासिक समीक्षा ऐतिहासिक दृष्टि से कर्मवाद पर चिन्तन करने के लिए हमें सर्वप्रथम वेदकालीन कर्म समब्धी विचारों पर ध्यान देना होगा। उपलब्ध साहित्य में वेद सबसे प्राचीन हैं। वैदिक युग के महर्षियों को कर्म-सम्बन्धी ज्ञान था या २४. कालो सहाव णियई पुव्वकम्म पुरिसकारणेगंता। मिच्छत्तं तं चेव उ समासओ हुंति सम्मत्तं ॥ -सन्मतितर्क प्रकरण ३,५३ शास्त्रवार्तासमुच्चय १९१-१९२ आप्तमीमांसा ८८-९१ [१८]
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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