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________________ सुखविपाक : सार : संक्षेप] [११५ फल में अन्धकार और प्रकाश जैसा अन्तर है। यह सत्य है कि मुमुक्षु साधक एकान्त संवर और निर्जरा के कारणभूत वीतराग भाव से रमण करना ही उपादेय मानता है, किन्तु इस प्रकार के विशुद्ध वीतरागभाव में दीर्घकाल पर्यन्त निरन्तर रमण करना बड़े-बड़े उच्चकोटि के साधकों के लिए भी संभव नहीं है। अतएव पापबन्ध से बचने के लिए पुण्य-प्रवृत्ति करने के सिवाय दूसरा कोई चारा नहीं है। भले ही यह आदर्श स्थिति न हो मगर आदर्श स्थिति प्राप्त करने के लिए अनिवार्य स्थिति अवश्य है। विपाकसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में ऐसे ही पुण्यशाली पुरुषों का वर्णन किया गया है। इसमें भी प्रथम श्रुतस्कन्ध की तरह दश अध्ययन हैं। प्रथम अध्ययन में सुबाहुकुमार का वर्णन किया गया है। परम पुण्य के उदय से सुबाहु को राजपरिवार में जन्म लेने के साथ ही श्रमण भगवान् महावीर के समागम का भी सौभाग्य प्राप्त होता है। उसने सुन्दर, मनोहर सौम्य और प्रिय बाह्य आकृति प्राप्त की। वह इतना प्रियदर्शन है कि गौतम स्वामी जैसे विरक्त महापुरुष का भी हृदय अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। वे भवगान् से उसकी मनोहरता और सोमता का कारण पूछते हैं। उसके पूर्वभव के विषय में पृच्छा करते हैं। - भगवान् ने गौतम स्वामी के प्रश्न का जो उत्तर दिया, उसका सारांश यह है कि सुबाहु पूर्वभव में सुमुख गाथापति था। एक बार मासखमण की निरन्तर तपस्या करने वाले सुदत्त अनगार पारणा के लिए उसके गृह में प्रविष्ट हुए। दृष्टि पड़ते ही सुमुख को हर्ष और सन्तोष हुआ। उत्तरासंग करके उनके सामने गया, प्रदक्षिणा करके मुनिराज को वन्दन-नमस्कार किया। निर्दोष आहार भक्तिभाव पूर्वक बहराया। उच्च और उदार भाव से प्रदत्त आहारदान के परिणामस्वरूप उसका संसार परीत हो गया। उसने मनुष्यायु का बन्ध किया। यही नहीं, देवों द्वारा पांच दिव्य प्रकट करके अपना आन्तरिक आनन्दातिरेक प्रकाशित किया गया। मानवगण ने समुख को 'धन्य धन्य' कहा। सबाह-कमार ने भगवान महावीर के निकट गहस्थधर्म अंगीकार किया, फिर अनगार धर्म की प्रव्रज्या अंगीकार की। अन्त में समाधिपूर्वक शरीर त्याग कर सौधर्म देवलोक में जन्म लिया। तत्पश्चात् बीच-बीच में मनुष्य होकर सभी विषमसंख्यक देव-लोकों के सुखों का उपभोग करने के बाद सर्वार्थसिद्ध विमान में, जहाँ सांसारिक सुखों की चरम सीमा होती है, जन्म लेकर तेतीस सागरोपम जितने दीर्घतर काल पर्यन्त रहकर महाविदेह में उत्पन्न होकर शाश्वत अनन्त आनन्दमय सिद्धि प्राप्त करेगा। कहाँ मृगापुत्र आदि का दुःखों से परिपूर्ण लम्बा भवभ्रमण और कहाँ सुबाहुकुमार आदि का सुखमय संसार! दोनों की तुलना करने से पाप और पुण्य का अन्तर सरलता से समझा जा सकता है। प्रथम अध्ययन में सुबाहुकुमार के वर्णन के सदृश ही अन्य अध्ययनों में शेष नौ पुण्यशालियों का वर्णन है। नाम, आदि की भिन्नता होने पर भी मुख्य तत्त्व समान ही है। विस्तार के लिए मूल आगम देखना चाहिए।
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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