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________________ द्वितीय श्रुतस्कन्ध सुखविपाक सार : संक्षेप यद्यपि कार्मणजाति के पुद्गल, जीव के साथ बद्ध होने से पूर्व समान स्वभाव (प्रकृति) वाले होते हैं किन्तु जब उनका जीव के साथ बन्ध होता है तो उनमें जीव के योग के निमित्त से भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वभाव उत्पन्न हो जाते हैं। वही स्वभाव जैनागम में 'कर्मप्रकृति' के नाम से प्रसिद्ध हैं। ऐसी प्रकृतियाँ मूल में आठ हैं और फिर उनके अनेकानेक अवान्तर भेद-प्रभेद हैं। विपाक की दृष्टि से कर्मप्रकृतियाँ दो भागों में विभक्त की गई हैं—अशुभ और शुभः। ज्ञानावरणीय आदि चार घातिकर्मों की सभी अवान्तर प्रकतियाँ अशुभ हैं। अघातिकर्मों की प्रकृतियाँ दोनों भागों में विभक्त हैं—कुछ अशुभ और कुछ शुभ। अशुभ प्रकृतियाँ पापप्रकृतियाँ कहलाती हैं, जिनका फलविपाक जीव के लिये अनिष्ठ, अकान्त अप्रिय एवं दुःखरूप होता है। शुभ कर्म-प्रकृतियों का फल इससे विपरीत–इष्ट, कान्त, प्रिय और सांसारिक सुख को उत्पन्न करने वाला होता है। दोनों प्रकार के फलविपाक को सरल, सरस और सुगम रूप से समझने के लिये विपाकसूत्र की रचना हुई है। यद्यपि यह सत्य है कि पाप और पुण्य-दोनों प्रकार की कर्मप्रकृतियों का सर्वथा क्षय होने पर ही मुक्ति की प्राप्ति होती है। तथापि दोनों प्रकार की प्रकृतियों में कितना और कैसा अन्तर है, यह तथ्य विपाकसूत्र में वर्णित कथानकों के माध्यम से समझा जा सकता है। दुःखविपाक के कथा-नायक मृगापुत्र आदि भी अन्त में मुक्ति प्राप्त करेंगे और सुखविपाक में उल्लिखित सुबाहु कुमार आदि को भी मुक्ति प्राप्त होगी। दोनों प्रकार के कथानायकों की चरम स्थिति एकसी होने वाली है। तथापि उससे पूर्व संसार-परिभ्रमण का जो चित्रण किया गया है, वह विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। पापाचारी मृगापुत्र आदि को दिल दहलाने वाली, घोरतर दुःखमय दुर्गतियों में से दीर्घ-दीर्घतर काल तक गुजरना होगा। अनेकानेक वार नरकों में, एकेन्द्रियों में तथा दूसरी अत्यन्त विषम एवं त्रासजनक योनियों में दुस्सह वेदनाएँ भुगतनी होंगी। तब कहीं जाकर उन्हें मानव-भव पाकर सिद्धि की प्राप्ति होगी। सुखविपाक के कथानायक सुबाहुकुमार आदि को भी दीर्घकाल तक संसार में रहना है। किन्तु उनके दीर्घकाल का अधिकांश भाग स्वर्गीय सुखों के उपभोग में अथवा सुखमय मानवभव में ही व्यतीत होने वाला है। पुण्यकर्म के फल होने वाले सुखरूप विपाक और पापाचार के फलस्वरूप होने वाले दुःखमय विपाक की तुलना करके देखने पर ज्ञात होगा कि पाप और पुण्य दोनों बन्धनात्मक होने पर भी दोनों के
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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