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________________ ९४] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध उस मत्स्य-कंटक को निकाल देगा तो, शौरिकदत्त उसे बहुत सा धन देगा।' कौटुम्बिक पुरुषों-अनुचरों ने उसकी आज्ञानुसार सारे नगर में उद्घोषणा कर दी। १३–तए णं ते बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाणुया य जाणुपुत्ता य तेगिच्छिया य तेगिच्छियपुत्ता य इमेयारूवं उग्घोसणं उग्घोसिज्जमाणं निसामेंति, निसामित्ता जेणेव सोरियदत्तस्स गहे, जेणेव सोरियमच्छंधे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता बहूहिं उप्पत्तियाहि य वेणइयाहिय कम्मियाहि य पारिणामियाहि य बुद्धीहिं परिणामेमाणा परिणामेमाणा वमणेहि य सड्डणेहि य, ओवीलणेहि य कवलग्गाहेहि य सल्लुद्धरणे हि विसल्लकरणेहि य इच्छंति सोरियमच्छंधस्स मच्छकंटयं गलाओ नीहरित्तए। नो चेव णं संचाएंति नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा। तए णं ते बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाणुया या जाणुयपुत्ता य तेगिच्छिया य तेगिच्छियपुत्ता य जाहे नो संचाएंति सोरियस्स मच्छकंटगं गलाओ नीहरित्तए, ताहे संता जाव (तंता परितंता) जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया। तए णं से सोरियदत्ते मच्छंधे वेज्जपडियारनिव्विण्णे तेणं महया दुक्खेणं अभिभूए समाणे सुक्के जाव ( भुक्खे जाव किमियकवले य वममाणे ) विहरइ। एवं खलु गोयमा! सोरिए पुरापोराणाणं जाव विहरइ। १३—उसके बाद बहुत से वैद्य, वैद्यपुत्र आदि उपर्युक्त उद्घोषणा को सुनते हैं और सुनकर शौरिकदत्त का जहाँ घर था और शौरिक मच्छीमार जहाँ था वहाँ पर आते हैं। आकर बहुत सी औत्पत्तिकी बुद्धि (स्वाभाविक प्रतिभा), वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी बुद्धियों से सम्यक् परिणमन करते (निदानादि को समझते हुए) वमनों, छर्दमों (वमन-विशेषों) अवपीड़नों (दबाने) कवलग्राहों (मुख की मालिश करने के लिए दाढों के नीचे लकड़ी का टुकड़ा रखमा) शल्योद्धारों (यन्त्र प्रयोग से काटों को निकालना) विशल्य-करणों (औषध के बल से कांटा निकालना) आदि उपचारों से शौरिकदत्त के गले के कांटे को निकालने का तथा पीव को बन्द करने का भरसक प्रयत्न करते हैं परन्तु उसमें वे सफल न हो सके अर्थात् उनसे शौरिकदत्त के गले का कांटा निकाला नहीं जा सका और न पीव व रुधिर बन्द हो सका। तब श्रान्त, तान्त, परितान्त हो अर्थात् निराश व उदास होकर वापिस अपने अपने स्थान पर चले गये। इस तरह वैद्यों के इलाज से निराश हुआ शौरिकदत्त उस महती वेदना को भोगता हुआ सूखकर यावत् अस्थिपिञ्जर मात्र शेष रह गया। वह दुःखपूर्वक समय बिता रहा है। भगवान् फरमाते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार वह शौरिकदत्त अपने पूर्वकृत अत्यन्त अशुभ कर्मों का फल भोग रहा है। शौरिकदत्त का भविष्य १४–'सोरिए णं, भंते! मच्छंधे इओ कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववज्जिहिइ ?'
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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