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________________ अष्टम अध्ययन] [९३ जाव पडागाइपडागेहि य सोल्लेहि य भज्जिएहि य तलिएहि य सुरं च महुं च मेरंगं च जाइं च सीधुं च पसण्णं च आसाएमाणे वीसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे विहरइ। ११–तदनन्तर शौरिकदत्त मच्छीमार ने रुपये, पैसे और भोजनादि का वेतन लेकर काम करने वाले अनेक वेतनभोगी पुरुष रक्खे, जो छोटी नौकाओं के द्वारा यमुना महानदी में प्रवेश करते-घूमते, ह्रदगलन हृदमलन, हृदमर्दन, ह्रदमन्थन, हृदवहन, हृदप्रवहन (हृद-जलाशय या झील का नाम है, उसमें मछली आदि जीवों को पकड़ने के लिये भ्रमण करना, सरोवर में से जल को निकालना या थूहर आदि के दूध को डालकर जल को दूषित करना, जल का विलोडन करना कि जिससे भयभीत व स्थानभ्रष्ट मत्स्यादि सरलता से पकड़े जा सकें) से, तथा प्रपंचुल, प्रपंपुल, मत्स्यपुच्छा, जृम्भा, त्रिसरा, भिसरा, विसरा, द्विसरा, हिल्लिरि, झिल्लिरि, लल्लिरि, जाल , गल, कूटपाश, वल्कबन्ध, सूत्रबन्ध और बालबन्ध (ये सब मत्स्यादिकों को पकड़ने के विविध साधन विशेषों के विशिष्ट नाम हैं) साधनों के द्वारा कोमल मत्स्यों यावत् पताकातिपताक मत्स्य विशेषों को पकड़ते, पकड़कर उनसे नौकाएं भरते हैं। भरकर नदी के किनारे पर लाते हैं, लाकर बाहर एक स्थल पर ढेर लगा देते हैं। तत्पश्चात् उनको वहाँ धूप में सूखने के लिये रख देते हैं। इसी प्रकार उसके अन्य रुपये, पैसे और भोजनादि लेकर काम करने वाले वेतनभोगी पुरुष धूप से सूखे हुए उन मत्स्यों के माँसों को शूलाप्रोत कर पकाते, तलते और भूनते तथा उन्हें राजमार्गों में विक्रयार्थ रखकर आजीवकिा करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे। शौरिकदत्त स्वयं भी उन शूलाप्रोत किये हुए, भुने हुए और तले हुए मत्स्यमांसों के साथ विविध प्रकार की सुरा सीधु आदि मदिराओं का सेवन करता हुआ जीवन यापन कर रहा था। १२—तए णं तस्स सोरियदत्तस्स मच्छंधस्स अन्नया कयाइ ते मच्छसोल्ले य तलिए य भज्जिए य आहारेमाणस्स मच्छकंटए गलए लग्गे यावि होत्था। तए णं से सेरियदत्ते मच्छंधे महयाए वेयणाए अभिभूए समाणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी 'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! सोरियपुरे नयरे सिंघाडग जाव पहेसु य महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा एवं वयह एवं खलु देवाणुप्पिया! सोरियदत्तस्स मच्छकंटए गले लग्गे। तं जो णं इच्छइ वेज्जो वा वेज्जपुत्तो वा जाणुओ वा जाणुयपुत्तो वा तेगिच्छिओ तेगिच्छियपुत्तो वा सोरियमच्छियस्स मच्छकंटयं गलाओ नीहरित्तए, तस्स णं सोरियदत्ते विउलं अत्थसंपयाणं दलयइ। तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव उग्घोसेंति।' १२—तदनन्तर किसी अन्य समय शूल द्वारा पकाये गये, तले गए व भूने गये मत्स्य मांसों का आहार करते समय उस शौरिकदत्त मच्छीमार के गले में मच्छी का कांटा फँस गया। इसके कारण वह महती असाध्य वेदना का अनुभव करने लगा। अत्यन्त दुखी हुये शौरिक ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा—'हे देवानुप्रियो! शौरिकपुर नगर के त्रिकोण मार्गों व यावत् सामान्य मार्गों पर जाकर ऊँचे शब्दों से इस प्रकार घोषणा करो कि हे देवानुप्रियो ! शौरिकदत्त के गले में मत्स्य का कांटा फंस गया है, यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, जानकार या जानकार का पुत्र, चिकित्सक या चिकित्सक-यपुत्र
SR No.003451
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_vipakshrut
File Size5 MB
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