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मृषावादी |
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वायु जीववाद - कुछ लोग वायु को -- प्राणवायु को ही जीव स्वीकार करते हैं । उनका कथन है कि जब तक श्वासोच्छ्वास चालू रहता है तब तक जीवन है और श्वासोच्छ्वास का अन्त हो जाना ही जीवन का अन्त हो जाना है । उसके पश्चात् परलोक में जाने वाला कोई जीव- आत्मा शेष नहीं रहता ।
किन्तु विचारणीय है कि वायु जड़ है और जीव चेतन है । वायु में स्पर्श आदि जड़ के धर्म स्पष्ट प्रतीत होते हैं, जबकि जीव स्पर्श आदि से रहित है । ऐसी स्थिति में वायु को ही जीव कैसे माना जा सकता है ?
आत्मा की सत्ता या नित्य सत्ता न मानने के फलस्वरूप स्वतः ही इस प्रकार की धारणाएँ पनपती हैं कि परभव नहीं है । शरीर का विनाश होने पर सर्वनाश हो जाता है । अतएव दान, व्रत, पोषध, तप, संयम, ब्रह्मचर्य आदि का आचरण निष्फल है । इनके करने का कुछ भी शुभ फल नहीं होता। साथ ही हिंसा, असत्य, चौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह आदि कुकृत्यों का भी कोई दुष्फल नहीं होता । इसी कारण यह विधान कर दिया गया है कि
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः ॥
अर्थात् — जब तक जीनो, सुख से - मस्त होकर जीश्रो । सुखपूर्वक जीवनयापन करने के लिए पैसा न हो तो ऋण लेकर घी पीओ – खाम्रो - पीओ । यह शरीर यहीं भस्मीभूत - राख हो जाता है । इसका फिर आगमन कहाँ है !
नरक है, स्वर्ग है, मोक्ष है, इत्यादि मान्यताएँ कल्पनामात्र हैं । अतएव इन्द्रियों के विषयों का सेवन करने में संकोच मत करो - मौज करो, मस्त रहो । धर्म-अधर्म का विचार त्याग दो । वे कहते भी हैं—
पिब खाद च चारुलोचने ! यदतीतं वरगात्रि ! तन्न ते ।
न हि भीरु ! गतं निवर्त्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ।।
अर्थात्
री सुलोचने ! मजे से मन चाहा खाओ, ( मदिरा आदि) सभी कुछ पीश्रो । हे सुन्दरी ! जो बीत गया सो सदा के लिए गया, वह अब हाथ आने वाला नहीं । हे भीरु ! (स्वर्गनरक की चिन्ता मत करो ) यह कलेवर तो पांच भूतों का पिण्ड ही है । इन भूतों के बिखर जाने पर आत्मा या जीव जैसी कोई वस्तु शेष नहीं रहती ।
इस प्रकार आत्मा का सनातन अस्तित्व स्वीकार न करने से जो विचारधारा उत्पन्न होती है, वह कितनी भयावह है ! आत्मा को घोर पतन ओर ले जाने वाली तो है ही, सामाजिक सदाचार, नैतिकता, प्रामाणिकता और शिष्टाचार के लिए भी चुनौती है ! यदि संसार के सभी मनुष्य इस नास्तिकवाद को मान्य कर लें तो क्षण भर भी संसार में शान्ति न रहे । सर्वत्र हाहाकार मच जाए। बलवान् निर्बल को निगल जाए । सामाजिक मर्यादाएँ ध्वस्त हो जाएँ । यह भूतल ही
नरक बन जाए ।
असद्भाववादी का मत
४८ - इमं वि बितियं कुदंसणं प्रसन्भाववाइणो पण्णवेति मूढा -संभूयो अंडगाओ लोगो । सयंभुणा सयं य णिम्मिश्रो ।
एवं एवं श्रलियं पयंपंति ।