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[ प्रश्नव्याकरणसूत्र : अ. १, अ. २
के एक समान वातावरण में पलने वाले दो पुत्रों में धरती आकाश जैसी जो विषमता दृष्टिगोचर होती है, वह किसी दृष्ट कारण से ही होती है । वह प्रदृष्ट कारण पूर्वजन्मकृत शुभाशुभ कर्म ही हो सकता है और पूर्वजन्मकृत शुभाशुभ कर्म का फल आत्मा का पूर्व जन्म में अस्तित्व माने विना नहीं सिद्ध हो सकता ।
बालकको जन्मते ही स्तनपान करने की अभिलाषा होती है और स्तन का अग्रभाग मुख में जाते ही वह दूध को चूसने लगता है । उसे स्तन को चूसना किसने सिखलाया है ? माता बालक के मुख में स्तन लगा देती है, परन्तु उसे चूसने की क्रिया तो बालक स्वयं ही करता है । यह किस प्रकार होता है ? स्पष्ट है कि पूर्व जन्मों के सस्कारों की प्रेरणा से ही ऐसा होता है । क्या इससे आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि नहीं होती ?
'एगे प्राया' इत्यादि आगम वाक्यों से भी आत्मा की त्रैकालिक सत्ता प्रमाणित है ।
विस्तार से आत्मसिद्धि के जिज्ञासु जनों को दर्शनशास्त्र के ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए । आत्मा की सिद्धि हो जाने पर परलोक पुनर्जन्म, पाप-पुण्य, पाप-पुण्य का फल, विविध योनियों में जन्म लेना आदि भी सिद्ध हो जाता है ।
पूर्वजन्म की स्मृति की घटनाएँ प्राज भी अनेकानेक घटित होती रहती हैं । ये घटनाएँ आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को भ्रान्त रूप से सिद्ध करती हैं ।
पंचस्कन्धवाद - बौद्धमत में पाँच स्कन्ध माने गए हैं - ( १ ) रूप ( २ ) वेदना ( ३ ) विज्ञान ( ४ ) संज्ञा और ( ५ ) संस्कार |
१- रूप- - पृथ्वी, जल प्रादि तथा इनके रूप, रस आदि ।
२ - वेदना - सुख, दु:ख आदि का अनुभव |
३ – विज्ञान - विशिष्ट ज्ञान अर्थात् रूप, रस, घट, पट आदि का ज्ञान ।
४ - संज्ञा - प्रतीत होने वाले पदार्थों का अभिधान - नाम ।
५ - संस्कार – पुण्य-पाप आदि धर्मसमुदाय ।
बौद्धदर्शन के अनुसार समस्त जगत् इन पाँच स्कन्धों का ही प्रपंच है । इनके अतिरिक्त आत्मा का पृथक् रूप से कोई अस्तित्व नहीं है । यह पांचों स्कन्ध क्षणिक हैं ।
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बौद्धों में चार परम्पराएँ हैं - ( १ ) वैभाषिक (२) सौत्रान्तिक ( ३ ) योगाचार और ( ४ ) माध्यमिक | वैभाषिक सभी पदार्थों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं, किन्तु सभी को क्षणिक मानते हैं । क्षण-क्षण में आत्मा का विनाश होता रहता है, परन्तु उसकी सन्तति - सन्तानपरम्परा निरन्तर चालू रहती है । उस सन्तानपरम्परा का सर्वथा उच्छेद हो जाना - बंद हो जाना ही मोक्ष है । सौत्रान्तिक सम्प्रदाय के अनुसार जगत् के पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं होता । उन्हें अनुमान द्वारा ही जाना जाता है । योगाचार पदार्थों को असत् मानकर सिर्फ ज्ञान की ही सत्ता स्वीकार करते हैं और वह ज्ञान क्षणिक है । माध्यमिक सम्प्रदाय इन सभी से आगे बढ़ कर ज्ञान की सत्ता नहीं मानता। वह शून्यवादी है । न ज्ञान है और न ज्ञेय है । शून्यवाद के अनुसार वस्तु सत् नहीं, असत् भी नहीं, सत्-असत् भी नहीं और सत् असत् नहीं ऐसा भी नहीं । तत्त्व इन चारों कोटियों से विनिर्मुक्त है ।
इन सब भ्रान्त मान्यताओं का प्रतीकार विस्तारभय से यहाँ नहीं किया जा रहा है । दर्शनशास्त्र में विस्तार से इनका खण्डन किया गया है ।